राजेन्द्र सजवान
पिछले कुछ महीनों में दिल्ली की फुटबाल में खासी उठा पटक देखने को मिली है। खासकर, शाजी प्रभाकरण के अध्यक्ष बनने के बाद से और डीएसए के फुटबाल दिल्ली बन जाने के बाद कुछ बदलाव और बेहतरी का संकेत मिला है| हालाँकि अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी।कारण, पिछले 40 सालों में राजधानी की फुटबाल और खिलाड़ियों ने बहुत कुछ खोया है। स्वर्गीय उमेश सूद और नासिर अली के शीर्ष पदों पर रहते खिलाड़ियों और क्लबों ने कुछ अच्छे दिन जरूर देखे किंतु सुभाष चोपड़ा की राजनीति स्थानीय क्लबों को रास नहीं आई। दादागिरी और मिली भगत के माहिरों ने खेल बिगाड़ना बदस्तूर जारी रखा।
शाजी की टीम पहले से बेहतर कर रही है। भले ही दिल्ली की अधिकांश टीमों का प्रदर्शन स्तरीय नहीं रह है फिरभी सीनियर टीम ने छेत्रीय टूर्नामेंट जीत कर दिल्ली और डीएसए का कद ऊंचा किया है। बेशक, यह टीम वर्क का नतीजा है और इस रिजल्ट का असर अन्य आयुवर्ग टीमों पर भी पड़ेगा। तारीफेकाबिल यह है कि शाजी की पेशेवर सोच के चलते आठ-दस साल से लेकर तमाम आयुवर्गों के बच्चों के लिए खुला मैदान है।इस कड़ी में बालिकाओं और महिलाओं के लिए किए जा रहे प्रयास प्रशंसनीय हैं। अब दिल्ली की लड़कियां बढ़चढ़ कर फुटबाल में पांव आजमा रही हैं| अर्थात, काफी कुछ ठीक हो रहा है लेकिन अध्यक्ष और उनके सहयोगियों को अवसरवादियों और जीहुजूरों से बच कर रहना होगा। यह बीमारी दिल्ली की फुटबाल को वर्षों से बर्बाद करती आई है।
लेकिन अपना पूरा जीवन खेल को देने वाले अनुभवी और समर्पित लोगों की अनदेखी कदापि ठीक नहीं होगी। नरेंद्र भाटिया, हेम चंद, मगन पटवाल आदि का योगदान बड़ा रहा है और यथा संभव उनकी सेवाएं ली जाएं तो अधिकारियों को खासी मदद मिल सकती है।लीग फुटबाल की अम्बेडकर और नेहरू स्टेडियम में वापसी के लिए शाजी और उनकी टीम की पीठ थपथपाई जा सकती है।जरूरत इस बात की है कि मैचों के आयोजन में पक्षपात और धांधली पर रोक लगाई जाए। बेहतर यह होगा कि सांस्थानिक फुटबाल को भी जैसे तैसे जिंदा रखा जाए|