उम्र की धोखाधड़ी: मीडिया, खेल महासंघ और अभिभावक खामोश क्यों?
राजेंद्र सजवान
जब कभी हमारे छोटी आयु वर्ग के खिलाड़ी हॉकी, फुटबॉल, मुक्केबाजी, कुश्ती, बैडमिंटन और तमाम खेलों में महाद्वीपीय या विश्व स्तर पर विजयश्री का वरण करते हैं, पदक जीतकर लाते हैं तो हमारे मीडिया का एक वर्ग उनकी तारीफों के पुल बांध देता है। उन्हें सिर पर बैठा लेता है। लेकिन कुछ एक साल 13, 15, 17, 20 और 23 साल आयु वर्गों में धमाचौकड़ी मचाने के बाद यही खिलाड़ी जब सीनियर वर्ग में दाखिल होते हैं, राष्ट्रीय टीम का हिस्सा बनते हैं तो ज्यादातर मैदान पर नजर नहीं आते। पता नहीं क्यों सीनियर वर्ग में पहुंचते ही खेलना भूल जाते हैं और देश का नाम खराब करते हैं। हैरानी वाली बात यह है कि ऐसे खिलाड़ियों के खराब प्रदर्शन के बारे में हमारा गैर जिम्मेदारी मीडिया चुप्पी साध लेता है। सवाल यह पैदा होता है कि हमारे खिलाड़ी सब-जूनियर और जूनियर वर्ग में धमाका करने के बाद सीनियरों के बीच अपना सर्वश्रेष्ठ क्यों नहीं दे पाते हैं। इसलिए क्योंकि उम्र की धोखाधड़ी के शिकार हैं।

एक सर्वे से यह पता चला है कि ज्यादातर उभरते खिलाड़ियों की जवानी स्कूल-कॉलेजों और तथाकथित अकादमियों में कट जाती है, जहां ऐसे दगाबाज छोटी और वास्तविक उम्र के खिलाड़ियों को बर्बाद कर डालते हैं, उन्हें आगे नहीं बढ़ने देते। नतीजा यह निकलता है कि तमाम खेलों के सीनियर वर्ग और राष्ट्रीय खेलों में बूढ़े और थके हारे खिलाड़ी पहुंचते हैं। वरना क्या कारण है कि दुनिया के अग्रणी खेल राष्ट्रों के खिलाड़ी 15 से 25 साल की उम्र में विश्व और ओलम्पिक चैम्पियन बन जाते हैं और अपने खिलाड़ी इस उम्र में जूनियर बन रहते हैं। ऐसे खिलाड़ी जब राष्ट्रीय टीम में पहुंचते हैं तो देश, समाज और मानवता को धोखा देते हैं। बेशक, उनके माता-पिता को धिक्कार! लेकिन देश का खेल मंत्रालय, भारतीय खेल प्राधिकरण, स्कूल और विश्वविद्यालय खेल बोर्ड क्या कर रहे हैं?
पिछले दिनों जब सुब्रतो मुखर्जी फुटबॉल टूर्नामेंट सोसाइटी ने दो सौ से ज्यादा खिलाड़ियों को उम्र की धोखाधड़ी में धर दबोचा तो देश का मीडिया, फुटबॉल महासंघ (एआईएफएफ) और तमाम खेल एसोसिएशन चुप्पी साधे रहे। ऐसा क्यों? जाहिर है धोखाधड़ी, भारतीय खेलों और खेल महासंघों के खून में रच बस गई है। यही कारण है कि डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले देश के पास एक भी ओलम्पिक चैम्पियन (मौजूदा) नहीं है।
