क्लीन बोल्ड/राजेंद्र सजवान
अक्सर जब कभी भारतीय खिलाड़ियों के प्रदर्शन की बात आती है तो हमारे खेल आका यह कहते नहीं थकते कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। जरूरत उन्हें अवसर प्रदान करने की है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि पूर्व खिलाड़ियों को सम्मान दिया जाए और उनके अनुभव का लाभ उठाया जाए तो देश में पदक विजेता खिलाड़ियों की कतार लग जाएगी। लेकिन भारतीय खेल आकाओं की कथनी और करनी का फर्क 30 अप्रैल से 3 मई तक दिल्ली में आयोजित ‘खेलो मास्टर्स गेम्स’ में साफ देखने को मिला।
बड़े-बड़े दावे करने वाली सरकारें और पूर्व खिलाड़ियों के मान-सम्मान की परवाह करने वाले अवसरवादी कहते तो बहुत कुछ हैं लेकिन उनके खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग है। मास्टर्स खेलों में जो नजारा देखने को मिला उसे लेकर यही कहा जा सकता है कि हमारे आयोजक, प्रायोजक और सरकारें खेल और खिलाड़ियों के प्रति गंभीर नहीं हैं।
झुलसा देने वाले तापमान में 35 से 90 साल तक के खिलाड़ियों का खेल के प्रति समर्पण देखते ही बनता है। 80-90 साल तक के धावकों ने 100 मीटर फर्राटा, से लेकर गोला फेंक, चक्का फेंक, भाला फेंक, पांच हजार मीटर की दौड़ और अन्य स्पर्धाओं में गजब का प्रदर्शन किया। अपने जमाने के दिग्गज खिलाड़ियों ने फुटबाल, वॉलीबॉल, हॉकी, कबड्डी और अन्य कई खेलों में भी अपना जौहर दिखाया।
मास्टर्स खेलों का उद्घाटन बाकायदा खेल मंत्री के हाथों किया गया। उन्होंने वेटरन खिलाड़ियों के जज्बे को सलाम तो किया लेकिन शायद ही किसी ने उन्हें यह बताया होगा कि केरल, बंगाल, मणिपुर, असम, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पंजाब, यूपी, एमपी, बिहार, उत्तराखंड और देशभर से खेलने आए दो हजार से ज्यादा खिलाड़ियों को पूरा खर्च अपनी जेब से करना पड़ा। पता नहीं मास्टर्स खेलों को खेल मंत्रालय ने कैसे मान्यता दी है लेकिन तमाम खिलाड़ी, अपने टिकट और किराए भाड़े से दिल्ली पहुंचे। ऊपर से आयोजकों ने पंजीकरण फीस भी ली। उन्होंने रहने-खाने का खर्च भी खुद वहन किया।
जिन खिलाड़ियों ने अपने प्रदेश और देश के लिए पूरा जीवन लगा दिया और जो झुलसा देने वाली गर्मी में भी मैदान में डटे रहे, उनके प्रति खेल मंत्रालय, आयोजकों और अन्य जिम्मेदर इकाइयों का उदासीन व्यवहार हैरान करने वाला है। भाग लेने वाले सभी खिलाड़ी चाहते हैं कि उन्हें सामान्य खिलाड़ियों की तरह खेल मैदान और कोच उपलब्ध कराए जाएं और मास्टर्स खेलों में भाग लेने वाले हर खिलाड़ी का खर्च राज्य सरकार उठाए।
कुछ खिलाड़ियों ने अपना दुखड़ा रोते हुए कहा कि देश में खेलों का माहौल बदल रहा है। खेल संघों में लुटेरे भरे पड़े हैं। उन्हें खिलाड़ियों की बिल्कुल भी परवाह नहीं है। खासकर, वेटरन और मास्टर्स खिलाड़ियों को कोई भी नहीं पूछता। यही कारण है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र सबसे फिसड्डी खेल राष्ट्र बन कर रह गया है और बीते कल के चैंपियनों को सरकार और खेल संघों ने पूरी तरह भुला दिया है।
कुछ खिलाड़ियों ने खेल मंत्री के आने, लंबा चौड़ा भाषण देने और बैडमिंटन खेलने को महज तमाशा करार दिया। यदि खेलमंत्री उनके लिए कोई बड़ी घोषणा करते तो बेहतर होता। दूर-दराज के प्रदेशों से आए खिलाड़ी चाहते हैं कि मास्टर्स खेलों को सरकार मान्यता दे, उनकी यात्रा और रहने खाने की निशुल्क व्यवस्था करे तो बेहतर होगा।
ज्यादातर मास्टर्स चाहते हैं कि उनके खेलों को किसी मान्यता प्राप्त संस्था या सीधे-सीधे खेल मंत्रालय की देखरेख में आयोजित किया जाए। उन्हें खेल मंत्रालय और अपने अपने राज्य के खेल विभाग द्वारा प्रोत्साहन मिलना चाहिए। मास्टर्स के अनुसार पहले उनके खेल मान्यता प्राप्त थे। लेकिन अवसरवादियों की घुसपैठ के चलते सरकार ने हाथ पीछे खींच लिए। तो फिर कौन लोग हैं जो मास्टर्स को अपने इशारे पर नचा रहे हैं? कौन हैं जो पूर्व चैंपियनों की आड़ में अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं?