- ग्रीको-रोमन में यदि एक भी भारतीय पहलवान ओलम्पिक की कसौटी पर खरा नहीं उतरा तो हैरान होने की जरूरत नहीं है
- द्रोणाचार्य राज सिंह की राय में ग्रीको-रोमन को कभी भी फ्री-स्टाइल की तरह गंभीरता से नहीं लिया गया लिहाजा तकनीकी रूप से हमारे पहलवान पूर्व सोवियत देशों के सामने कमजोर पड़ जाते हैं, क्योंकि उन्हें अंतर्राष्ट्रीय मंच पर आधिकाधिक अवसर नहीं मिल पाते हैं
- द्रोणाचार्य महासिंह की राय में ग्रीको-रोमन पहलवानों को अपेक्षाकृत कम महत्व दिया जा रहा है। अधिकतर पहलवान बड़े दंगलों में फ्री-स्टाइल कुश्ती लड़ते हैं और एशियाड एवं ओलम्पिक के लिए ग्रीको-रोमन में लौट आते हैं
- राजसिंह की तरह महासिंह भी चाहते हैं कि फ्री-स्टाइल की तरह ग्रीको-रोमन में भी पर्याप्त प्रोत्साहन मिले, लगातार कैंप लगें और हर भार वर्ग में चार-छह पहलवान शामिल हों तो प्रदर्शन सुधर सकता है
- दोनों ही दिग्गज द्रोणाचार्य ओलम्पिक में ग्रीको-रोमन पहलवानों की भागीदारी और पदक की उम्मीदों को ख्याली पुलाव मानते हैं
राजेंद्र सजवान
एशियन ओलम्पिक क्वालीफायर में एक भी पुरुष फ्री-स्टाइल पहलवान कामयाब नहीं हो पाया तो ग्रीको-रोमन शैली में भारतीय पहलवानों का प्रदर्शन बेहद शर्मनाक रहा। क्वालीफाई करना तो दूर एक-दो राउंड से आगे कोई भी भारतीय पहलवान नहीं बढ़ पाया। हालांकि अभी एक और मौका है लेकिन वर्ल्ड क्वालीफायर में मुकाबले और कड़े होंगे, क्योंकि पेरिस ओलम्पिक के लिए टिकट पाने का आखिरी अवसर है, जिसमें तमाम देश के दिग्गज भाग लेंगे।
फिलहाल महिला पहलवानों ने भारतीय कुश्ती की लाज बचाई है। अंतिम पंघाल के बाद अब विनेश फोगाट, अंशु मलिक, और रितिका ने अपने-अपने भार वर्ग में भारत के लिए ओलम्पिक कोटा हासिल कर लिया है। उम्मीद की जा रही है कि कुछ एक फ्री-स्टाइल पुरुष पहलवान भी पेरिस का टिकट पा सकते हैं। लेकिन ग्रीको-रोमन में यदि एक भी पहलवान कसौटी पर खरा नहीं उतरा तो हैरान होने की जरूरत नहीं है। इसलिए चूंकि ग्रीको-रोमन कुश्ती अपने देश में सिर्फ खानापूरी तक सीमित है। क्यों ग्रीको-रोमन शैली फ्री-स्टाइल की तरह लोकप्रिय नहीं हो पा रही। और क्यों कोई भारतीय ग्रीको-रोमन में ओलम्पिक पदक के आस-पास भी नहीं पहुंच पाता? इन सवालों पर देश का लाखों-करोड़ों रुपये लुटाने वाले खेल मंत्रालय ने शायद ही कभी ध्यान दिया हो। शायद ही कभी कुश्ती फेडरेशन ने जानने की कोशिश की हो कि क्यों ग्रीको-रोमन शैली भारतीय कुश्ती का अभिशाप बन कर रह गई है।
इस बारे में देश के दिग्गज द्रोणाचार्य राज सिंह और महासिंह राव से जानने का प्रयास किया गया तो बहुत से कारण सामने आए। लगभग बीस साल तक भारतीय कुश्ती के चीफ कोच रहे राज सिंह को देश के महानतम कुश्ती कोचों में शुमार किया जाता है, तो महासिंह राव हनुमान अखाड़े से निकल कर भारतीय कुश्ती में जोरदार पहचान बनाने में सफल रहे। दोनों द्रोणाचार्य अवार्ड पा चुके हैं।
राज सिंह के अनुसार, ग्रीको-रोमन को किसी ने भी गंभीरता से नहीं लिया। उनकी राय में ग्रीको-रोमन को कभी भी फ्री-स्टाइल की तरह गंभीरता से नहीं लिया गया। तकनीकी रूप से हमारे पहलवान पूर्व सोवियत देशों के सामने कमजोर पड़ जाते हैं, क्योंकि उन्हें अंतर्राष्ट्रीय मंच पर आधिकाधिक अवसर नहीं मिल पाते हैं। बेहतर होगा कि क्वालिटी, फ्लेक्सिबिलिटी और अधिकाधिक टूर्नामेंट पर ध्यान दिया जाए।
महासिंह की राय में ग्रीको-रोमन पहलवानों को अपेक्षाकृत कम महत्व दिया जा रहा है। अधिकतर पहलवान बड़े दंगलों में फ्री-स्टाइल कुश्ती लड़ते हैं और एशियाड एवं ओलम्पिक के लिए ग्रीको-रोमन में लौट आते हैं। राजसिंह की तरह महासिंह भी चाहते हैं कि फ्री-स्टाइल की तरह ग्रीको-रोमन में भी पर्याप्त प्रोत्साहन मिले, लगातार कैंप लगें और हर भार वर्ग में चार-छह पहलवान शामिल हों तो प्रदर्शन सुधर सकता है। दोनों ही दिग्गज द्रोणाचार्य ओलम्पिक में ग्रीको-रोमन पहलवानों की भागीदारी और पदक की उम्मीदों को ख्याली पुलाव मानते हैं।