- क्रिकेट ने 1983 वर्ल्ड कप जीतने के बाद से अपने उत्थान का सिलसिला बनाए रखा और 2007, 2011 और अब 2024 में अलग-अलग कप्तानों और स्टार खिलाड़ियों की छाया विश्व स्तरीय खिताब जीत कर बाकी खेलों के जले पर नमक छिड़का
- कपिल, धोनी, रोहित शर्मा की कप्तानी में जीते विश्व खिताब आम भारतीयों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दिला रहे हैं
- क्रिकेट तरक्की करती रही और बाकी खेल, जिनमें ओलम्पिक और कई गैर-ओलम्पिक खेल शामिल है, क्रिकेट से जलते-कुढ़ते रहे और अपनी नाकामी का ठीकरा क्रिकेट के सिर फोड़ते रहे
- अब तो यहां तक कहा जाने लगा है कि जिस प्रकार फुटबॉल पूरी दुनिया का खेल है उसी प्रकार क्रिकेट आम भारतीयों का खेल बन गया है
- सबसे बड़ी जनसंख्या खड़ी करने वाले देश के पास आठ हॉकी स्वर्ण हैं और इनके अलावा निशानेबाज अभिनव बिंद्रा और भाला फेंक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा की उपलब्धियों पर हम आखिर कब तक फेंकते रहेंगे?
- अब वक्त आ गया है कि भारतीय खेल मंत्रालय, खेल महासंघ, खेल प्राधिकरण और देश में खेलों के नीति निर्माता क्रिकेट की क्लास ज्वाइन करें और क्रिकेट बोर्ड और उसके चैम्पियनों से सीखें
राजेंद्र सजवान
कपिल देव निखंज की कप्तानी वाली टीम ने जब 1983 वर्ल्ड कप जीता तो पहले यह कामयाबी आम भारतीय को सपने जैसी लगी। कारण, उस समय एकदिनी फॉर्मेट में भारत की पहचान बेहद कमजोर टीम की थी। लेकिन धीरे-धीरे पूरे देश को विश्वास हो गया कि यह खेल आने वाले सालों में बड़े-बड़े धमाल करने वाला है।
तारीफ की बात यह है कि जहां एक ओर क्रिकेट की जय-जयकार हो रही थी तो दूसरी तरफ बाकी खेल हैरान परेशान थे। उन नकारा खेलों और उनके भ्रष्ट अधिकारियों को अपनी झूठी शान खतरे में नजर आने लगी थी। क्रिकेट तरक्की करती रही और बाकी खेल, जिनमें ओलम्पिक और कई गैर-ओलम्पिक खेल शामिल है, क्रिकेट से जलते-कुढ़ते रहे। इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले कई सालों तक बाकी खेल क्रिकेट से जलते-कुढ़ते रहे। अपनी नाकामी का ठीकरा क्रिकेट के सिर फोड़ते रहे।
उधर, क्रिकेट ने अपने उत्थान का सिलसिला बनाए रखा और 2007, 2011 और अब 2024 में अलग-अलग कप्तानों और स्टार खिलाड़ियों की छाया विश्व स्तरीय खिताब जीत कर बाकी खेलों के जले पर नमक छिड़का। माफ कीजिए, क्रिकेट, क्रिकेट बोर्ड और क्रिकेटरों ने शायद ही कभी दूसरे खेलों के बारे में बुरा सोचा होगा। यदि ऐसा होता तो भीख का का कटोरा लेकर घूम रहे खेलों पर क्रिकेट कभी दया न दिखाता। सरकारी ग्रांट और औद्योगिक घरानों की भीख पर पल रहे खेल भले ही कुछ भी सोचें, कुछ भी कहें लेकिन अब उनकी समझ में आ गया है कि क्रिकेट को टक्कर देने का दम उनमें कदापि नहीं है क्योंकि उनके पास पूरे देश को एकजुट करने और समान भाव से सोचने समझने की ताकत नहीं है। अब तो यहां तक कहा जाने लगा है कि “भारतवासियों की रगों में क्रिकेट बहता है।” जिस प्रकार फुटबॉल पूरी दुनिया का खेल है उसी प्रकार क्रिकेट आम भारतीयों का खेल बन गया है।
कपिल, धोनी, रोहित शर्मा की कप्तानी में जीते विश्व खिताब आम भारतीयों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दिला रहे हैं। नई पीढ़ी बड़े गर्व के साथ पूरी दुनिया को बता रही है कि हम उस भारत के वासी हैं, जो कि क्रिकेट महारथी है, विश्व विजेता है। ओलम्पिक खेलों में हम क्या उखाड़ पाए हैं, पूरी दुनिया जानती है। सबसे बड़ी जनसंख्या खड़ी करने वाले देश के पास आठ हॉकी स्वर्ण हैं, जिनकी चमक पर बाकी खेलों का नकारापन भारी पड़ रहा है। हॉकी के अलावा निशानची अभिनव बिंद्रा और भाला फेंक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा की उपलब्धियों पर हम आखिर कब तक फेंकते रहेंगे? अब वक्त आ गया है कि भारतीय खेल मंत्रालय, खेल महासंघ, खेल प्राधिकरण और देश में खेलों के नीति निर्माता क्रिकेट की क्लास ज्वाइन करें और क्रिकेट बोर्ड और उसके चैम्पियनों से सीखें। उनसे पूछें कि पूरे देश की रगों में खून के साथ-साथ क्रिकेट कैसे बह रहा है?