- पिछले कुछ सालों से जहां दिल्ली में फुटबॉल का चहुंमुखी विस्तार और विकास हुआ तो खेलने के मैदान सिकुड़ते जा रहे हैं और आज डीएसए की सबसे बड़ी समस्या यह है कि फुटबॉल कहां खेले!
- डीएसए के पास अपना कोई स्टेडियम नहीं है इसलिए वो दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, डॉ. बीआर अम्बेडकर स्टेडियम, छत्रसाल स्टेडियम, डीडीए और एमसीडी के स्टेडियम पाने लिए दूसरों पर निर्भर है
- लेकिन उनमें से ज्यादातर पर या तो ताले जड़ दिए गए हैं, अन्य गतिविधियां हो रही हैं या फिर उनका प्रतिदिन किराया पकड़ से बाहर है
- एक तरफ देश की सरकार खेलों को बढ़ावा देने के नारे उछाल रही है तो दूसरी देश भर में खेलों के मान्यता प्राप्त और पंजीकृत संस्थान और संगठन खेल मैदानों के लिए तरस रहे हैं
- राजधानी की फुटबॉल में गुटबाजी हावी है इसलिए दो-तीन धड़े अपना-अपना वर्चस्व कायम करने के लिए एक-दूसरे को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते
राजेंद्र सजवान
दिल्ली सॉकर एसोसिएशन (डीएसए) की समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं। ऐसा इसलिए नहीं हो रहा क्योंकि राजधानी की फुटबॉल में गुटबाजी हावी है। संभवतया दो-तीन धड़े अपना-अपना वर्चस्व कायम करने के लिए एक-दूसरे को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। लेकिन यह सब सिर्फ डीएसए में नहीं चला रहा। इस प्रकार की गतिविधियां भारतीय खेलों का चरित्र बन चुकी है। एआईएफएफ की तमाम सदस्य इकाइयां, खुद एआईएफएफ और देश के तमाम खेल संघ और संगठन गुटबाजी, मार-काट, लूट-खसोट और सत्ता हथियाने की साजिश में लगे हैं। भारतीय खेलों की पितृ संस्था आईओए में चल रहा घमासान बताता है कि भारतीय खेलों के कर्णधार कितना नीचे गिर चुके हैं। देश के खेलों की लूट में ज्यादा से ज्यादा हड़पना और काबिल लोगों को नीचा दिखाना उनका पहला और एकमात्र नारा बन चुका है।
एक पूर्व फुटबॉलर और वरिष्ठ खेल पत्रकार के रूप में दिल्ली और देश की फुटबॉल और तमाम खेलों को करीब से देखने-समझने का अनुभव मिला और पाया कि दिन पर दिन हमारे खेल राजनीति के अखाड़े बनते जा रहे हैं। जहां तक स्थानीय फुटबॉल की बात है तो दिल्ली सॉकर एसोसिएशन में समझदार और दूरदर्शी लोगों की कमी नहीं है। बस एक समस्या का निदान हो जाए तो सारे झगड़े-फसाद, आरोपों-प्रत्यारोपों का हल निकल जाएगा। पिछले कुछ सालों से जहां दिल्ली में फुटबॉल का चहुंमुखी विस्तार और विकास हुआ तो खेलने के मैदान सिकुड़ते जा रहे हैं। आज डीएसए की सबसे बड़ी समस्या यह है कि फुटबॉल कहां खेले! जिन पार्कों और खुले मैदानों में स्थानीय बच्चे खेलते थे और तमाम बड़े-छोटे क्लब चाय और मट्ठी की खुराक से नामी खिलाड़ी बनते थे, उनको देश की राजधानी का श्रृंगारदान बना दिया गया है।
हालांकि जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, डॉ. बीआर अम्बेडकर स्टेडियम, छत्रसाल स्टेडियम, डीडीए और एमसीडी के कई स्टेडियम उपलब्ध हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर पर या तो ताले जड़ दिए गए हैं, अन्य गतिविधियां हो रही हैं या फिर उनका प्रतिदिन किराया पकड़ से बाहर है। हैरानी वाली बात यह है कि एक तरफ देश की सरकार खेलों को बढ़ावा देने के नारे उछाल रही है तो दूसरी देश भर में खेलों के मान्यता प्राप्त और पंजीकृत संस्थान और संगठन खेल मैदानों के लिए तरस रहे हैं। खिलाड़ियों, क्लबों की बढ़ती संख्या और सुविधाएं बढ़ने के बावजूद भी दिल्ली और देश की फुटबॉल यदि प्रगति नहीं कर पा रही तो बड़ा कारण, खेल मैदान और स्टेडियमों की कमी है। डीएसए के पास अपना कोई स्टेडियम नहीं है। नतीजन डीएसए की तमाम लीग संकट में है, जिसका तुरंत हल खोजने के लिए एकजुट होने की जरूरत है। क्या दिल्ली की फुटबॉल तमाम झगड़े भुलाकर ‘मैदान’ की तरफ कूच करेंगी?