क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
“चूँकि बीसीसीआई के मुंह पत्रकार का खून लग गया है इसलिए क्रिकेट के पोंगे पंडित और क्रिकेटरों के चारण भाट खबरदार हो जाएं तो बेहतर रहेगा। उन्हें समझ लेना चाहिए कि अब गावस्कर, विश्वनाथ, चंद्रा, वेंकट, मोहिंदर, सचिन, द्रविड़ और लक्ष्मण जैसे जेंटल क्रिकेटरों का ज़माना नहीं रहा। पैसे और शौहरत ने आज के क्रिकेटरों को आदम कद बना दिया है और पत्रकार का कद उसी अनुपात में घटा है। क्रिकेट कवर करने वाले पत्रकारों के लिए भी सन्देश है कि खुद को खुदा समझने कि भूल ना करें। जो बीसीसीआई “क्रिकेट के भगवान्” और भारत रत्न सचिन तेंदुलकर पर किताब लिखने वाले बोरिया मजूमदार को सबक सिखा सकती है और जिसके सामने देश का खेल मंत्रालय भी असहाय है, उसके लिए पत्रकार नाम का प्राणी शायद कोई मायने नहीं रखता”, एक जाने-माने वरिष्ठ खेल पत्रकार की यह प्रतिक्रिया क्रिकेट के जी हुजूरों को खबरदार तो करती है साथ ही यह संदेश भी देती है कि क्रिकेट खिलाड़ियों के पीछे भागना और ज्यादा सिर चढ़ाना छोड़ दें।
आज के दौर में जब क्रिकेट की तूती बोल रही है, तो कोई पत्रकार किसी क्रिकेट खिलाड़ी को धमका सकता है, यह बात गले उतरने वाली नहीं है। लेकिन कोलकत्ता के पत्रकार बोरिया मजूमदार ने यह साहसी काम किया और बहादुरी का इनाम भी पाया है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) ने बोरिया पर दो साल का बैन लगा दिया है। बोर्ड की एपेक्स कमेटी ने इस पत्रकार को पंजीकृत खिलाड़ियों के साक्षात्कार लेने, स्टेडियमों में प्रवेश और प्रेस को दी जाने वाली अन्य सुविधाओं से वंचित कर दिया है।
बेशक, यह अपनी किस्म का अनोखा मामला है। पहले शायद ही कभी किसी पत्रकार को यह दिन देखना पड़ा हो। आरोप है की उसने विकेटकीपर-बल्लेबाज ऋद्धिमान साहा को इंटरव्यू नहीं देने पर डराया-धमकाया और धमकी भरे सन्देश भी किए। मामले की जांच के लिए बाकायदा तीन सदस्यीय समिति का गठन किया गया और ना-नुकुर के बाद अंततः साहा ने पत्रकार का नाम बता दिया और सौरभ गांगुली की अध्यक्षता वाली बीसीसीआई ने वह कर दिखाया जिसके बारे में क्रिकेट का स्तुतिगान करने वाले पत्रकारों ने शायद ही कभी सोचा होगा।
इस विषय पर आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट कर दें कि अपने देश में खेल पत्रकारिता नाम का स्तम्भ कब का ढह चुका है। रही-सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी है, जिसके चलते अन्य क्षेत्रों के मुकाबले खेलों पर सबसे बुरा असर पड़ा है। जाहिर है जब खेल नहीं होंगे तो खेल पत्रकार क्या करेंगे! जैसे-तैसे क्रिकेट ने खुद को बचाए रखा और अब बची है तो सिर्फ क्रिकेट पत्रकारिता। वैसे भी टीवी चैनलों के अस्तित्व में आने के बाद से क्रिकेट और अन्य खेल दो धड़े बन गए और क्रिकेट के पत्रकार बाकी खेलों को कवर करने वाले पत्रकारों को दूसरे- चौथी श्रेणी का समझने लगे थे। लेकिन अब क्रिकेट बोर्ड ने खुद को खुदा समझने वालों को हैसियत का आईना दिखा दिया है।
बोर्ड के कदम को दो अलग-अलग कोणों से देखा जा रहा है। एक वर्ग कह रहा है कि जो हुआ ठीक हुआ। आखिर किसी भी पत्रकार को किसी क्रिकेटर को इंटरव्यू के लिए बाध्य करने का हक़ किसने दे दिया? दूसरा ग्रुप बीसीसीआई को निरंकुश बता रहा है लेकिन पड़ताडित पत्रकार के पक्ष में कोई भी कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है। बोर्ड के कदम और पत्रकार को दिए दंड को दो अलग-अलग चश्मों से क्यों देखा जा रहा है, इसका जवाब किसी के भी पास नहीं है। हैरानी इस बात की है की पत्रकारों के अलग-अलग ग्रुपों में बोरिया मजूमदार से जुड़े पहलुओं को चटकारे लेकर सुनाया पढ़ाया जा रहा है।
आईपीएल के अस्तित्व में आने के बाद से क्रिकेट देश का सबसे लोकप्रिय और भी धनाढ्य खेल बन गया है। क्रिकेट को कामयाबी इसलिए मिली क्योंकि क्रिकेट बोर्ड अन्य भारतीय खेल संघों की तरह सुस्त और गैर-जिम्मेदार नहीं है। उसके उच्च अधिकारियों, प्रशासकों और खिलाड़ियों पर सट्टेबाजी, मैच फिक्सिंग और अन्य धोखाधड़ी जैसे आरोप लगे लेकिन क्रिकेट की रफ़्तार पर कोई फर्क नहीं पड़ा। चूँकि क्रिकेट सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है इसलिए ज्यादातर पत्रकारों ने खुद को क्रिकेट पंडित और क्रिकेट मसीहा कहलाना शुरू कर दिया था। शायद उसी अकड़ का नतीजा है कि कुछ पतलकारों का बोरिया बिस्तर बंधने की शुरुआत हो गई है।