फिर विदेशी धुन पर नाचेगी फ्लॉप फुटबॉल?

  • एआईएफएफ की तकनीकी समिति के अध्यक्ष आई.एम. विजयन देश के फुटबॉल प्रेमियों से पूछ रहे हैं कि पूर्व खिलाड़ी रेनेडी सिंह, खालिद जमील और महेश गावली में से कौन सा सबसे बढ़िया कोच रहेगा
  • फेडरेशन के बड़े ‘विदेशी’ राग अलाप रहे हैं, क्योंकि सोशल मीडिया पर इन तीनों नाम के अलावा कुछ विदेशी कोचों की भी चर्चा है
  • कुछ पूर्व फुटबॉलर और कोच कह रहे हैं कि राष्ट्रीय टीम की बजाय यूरोपीय या लैटिन अमेरिकी कोचों को सब जूनियर और जूनियर स्तर की टीमों के शिक्षण-प्रशिक्षण का जिम्मा सौंपा जाए तो बेहतर रहेगा

राजेंद्र सजवान

देर से ही सही भारतीय फुटबॉल के कर्णधारों ने शायद आईने में अपना और देश की फुटबॉल का चेहरा देख लिया है, पिछले चालीस सालों में की गई गलतियां उन्हें कुछ नया करने के लिए प्रेरित कर रही हैं। चूंकि एक और बड़बोला विदेशी कोच जा चुका है इसलिए सालों साल सोई रहने वाली देश की ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) हरकत में आ रही है। एआईएफएफ की तकनीकी समिति के अध्यक्ष आई.एम. विजयन देश के फुटबॉल प्रेमियों से पूछ रहे हैं कि पूर्व खिलाड़ी रेनेडी सिंह, खालिद जमील और महेश गावली में से कौन सा सबसे बढ़िया कोच रहेगा तो फेडरेशन के बड़े ‘विदेशी’ राग अलाप रहे हैं।

विजयन खुद एक बेहतरीन खिलाड़ी रहे हैं और अपने समकालीन खिलाड़ियों में से किसी एक को राष्ट्रीय कोच के रूप में देखना चाहते हैं। उनके द्वारा सुझाए गए तीनों नामों को समर्थन मिला लेकिन फेडरेशन फिर से विदेशी कोच के मोहपाश में फंसती नजर आ रही है और फिर गोरे कोच को बागडोर सौंपी जा सकती है। लेकिन स्वदेशी में से ज्यादातर की पहली पसंद खालिद जमील है। हालांकि रेनेडी सिंह को भी बड़े वर्ग का समर्थन मिला है। सोशल मीडिया पर इन तीनों नाम के अलावा कुछ विदेशी कोचों की भी चर्चा है। कुछ पूर्व फुटबॉलर और कोच कह रहे हैं कि राष्ट्रीय टीम की बजाय यूरोपीय कोचों को सब जूनियर और जूनियर स्तर की टीमों के शिक्षण-प्रशिक्षण का जिम्मा सौंपा जाए तो बेहतर रहेगा।

   हालांकि भारतीय फुटबॉल के कुछ प्रकांड पंडित और तथाकथित विशेषज्ञों को यह प्रपोजल हास्यपद लगता है लेकिन सच्चाई यह है कि भारतीय फुटबॉल को ‘वक्त’ और ‘एडवांस’ फुटबॉल के साथ चलना है, प्रतिस्पर्धा करनी है तो ग्रासरूट स्तर से खिलाड़ियों को अत्याधुनिक तकनीक सिखाने-पढ़ाने की जरूरत है। भले ही राष्ट्रीय कोच विदेशी या कोई अपना हो लेकिन छोटे आयु वर्गों से ही उन्हें यूरोपीय या लैटिन अमेरिकी कोचों द्वारा पढ़ाया-सिखाया जाए तो बेहतर रहेगा। पके-पकाए और 25-30 साल के खिलाड़ियों को दुनिया का कोई भी कोच शायद ही सुधार पाए। पौधा जब पेड़ बन जाता है तो उसकी दशा-दिशा बदलना बहुत मुश्किल होता है।    देश के कुछ पूर्व खिलाड़ियों की राय में भारतीय फुटबॉल साल दर साल रसातल में जा रही है, जिसे विदेशी कोच भी नहीं बचा पाए। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि हमने अपने कोचों का पूरी तरह से तिरस्कार कर दिया। अधिकतर जानकार चाहते हैं कि सबसे पहले सड़े गले ढांचे को सुधारा जाए, उम्र की धोखाधड़ी पर अंकुश लगे और जूनियरों को विदेशी कोचों के हवाले कर दिया जाए। क्या ऐसा हो पाएगा?

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