राजेंद्र सजवान
पेरिस की उड़ान पकड़ने से पहले ओलम्पिक और पैरालंपिक खेलों के शीर्ष अधिकारियों, खिलाड़ियों, कोचों, खेल मंत्रालय और भारतीय खेल प्राधिकरण के सैर-सपाटेबाजों की दो अलग तरह की प्रतिक्रिया देखने-सुनने को मिली। दलदल में फंसा एक दल कह रहा था कि इस बार पेरिस फतह करके ही मानेंगे और पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ डालेंगे। हालांकि यह प्रतिक्रिया कुछ-कुछ फिल्मी कॉमेडियन्स जैसी थी। लगा जैसे जॉनी लिवर और जगदीप तोड़ डालेंगे, फोड़ डालेंगे और ओलम्पिक में लूट मचाने जैसे मजाकिया डायलॉग बोल रहे हों।
उधर, पैरालंपिक संघ के सर्वोच्च अधिकारी, कोच, खिलाड़ी और तमाम दल कह रहा था, “अपना बेहतर देने की कोशिश करेंगे और देश का मान बढ़ाएंगे।” कुछ इसी तरह की शालीनता दीपा मलिक और देवेंद्र झांजरिया ने भी दिखाई। दोनों उच्च कोटि के एथलीट और प्रशासनिक अधिकारी हैं लेकिन विदाई समारोह में उनकी विनम्रता देखते ही बनती थी। अधिकारी और कोच कह रहे थे कि बीस से पच्चीस पदक जीत सकते हैं और उन्होंने कर दिखाया। दूसरी तरफ बड़बोले कह रहे थे कि तीरंदाजी में तीन-चार, एथलेटिक्स में कम से कम दो, मुक्केबाजी में तीन, हॉकी में गोल्ड, बैडमिंटन में गोल्ड सहित दो-तीन, कुश्ती में दो पदक तय हैं। गनीमत है कि तैराकी और जिम्नास्टिक में दावा नहीं किया। वो तो खैर रही कि निशानेबाजी के तीन पदकों ने लाज बचा ली और पदक तालिका में 71वें स्थान रहे। सही मायने में 150 करोड़ की आबादी वाले देश के लिए यह शर्मनाक प्रदर्शन है लेकिन जब सरकार खुश है देश के खेलों के ठेकेदार फूले नहीं समा रहे तो किसी को क्या पड़ी है।
ओलम्पिक और पैरालंपिक की तुलना वाले तर्क दे रहे हैं कि पैरा खिलाड़ियों के मुकाबले आम खिलाड़ियों से कम ‘टफ’ होते हैं। सामान्य खिलाड़ियों के बीच भारतीय खिलाड़ी देश के मौसम, शारीरिक बनावट, साधन-सुविधा और तैयारी के चलते हल्के पड़ जाते हैं। अब ऐसे बहानेबाजों को कौन समझाए कि दिव्यांग खिलाड़ी शारीरिक और मानसिक तौर पर कमजोर हो सकते हैं लेकिन वे मानसिक दृढ़ता और बेहतर कर गुजरने की जिद के चलते कमाल कर रहे हैं और हार पर कोई बहाना नहीं बनाते। देशवासियों के खून पसीने की कमाई पर मौज करने वाले, सालों साल विदेश दौरे करने वाले और अंतत: हार पर शर्मनाक बहाने वालों के लिए पैरा खिलाड़ियों का प्रदर्शन एक नसीहत जैसा है अपनी शालीनता से तमाम पैरालंपियनों ने देश वासियों का दिल जीत लिया है।