- एक जमाना था जब संतोष ट्रॉफी के लिए खेली जाने वाली राष्ट्रीय चैंपियनशिप भारतीय फुटबॉल का मुकुट थी
- यह आयोजन खिलाड़ियों के लिए राष्ट्रीय टीम में जगह पाने का माध्यम था
- इसमें कोई दो राय नहीं है कि आईएसएल के पदार्पण से संतोष ट्रॉफी का रुतबा घटा है
- बीसवीं सदी के आखिरी तीन-चार दशकों के फुटबॉलरों के अनुसार, संतोष ट्रॉफी को फिर उसका गौरव लौटाने की जरूरत है
- उनकी राय में आईएसएल से खिलाड़ी अपना भविष्य सुरक्षित कर सकते हैं लेकिन यदि देश की फुटबॉल को बचाना है तो संतोष ट्रॉफी को विशेष दर्जा देने की जरूरत है
राजेंद्र सजवान
संतोष ट्रॉफी का 78वां संस्करण समापन की तरफ अग्रसर है। विजेता कोई भी बने, इतना तय है कि भारतीय फुटबॉल को इस आयोजन के बाद कोई बड़ा फायदा होने वाला नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि संतोष ट्रॉफी में आईएसएल और आई-लीग के बचे और छंटे हुए खिलाड़ी भाग लेते हैं। लेकिन एक जमाना था जब संतोष ट्रॉफी भारतीय फुटबॉल का मुकुट थी। यह आयोजन खिलाड़ियों के लिए राष्ट्रीय टीम में जगह पाने का माध्यम था। तब पंजाब, बंगाल, केरल, महाराष्ट्र, सेना, रेलवे, आंध्र प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों के श्रेष्ठ खिलाड़ी इस आयोजन में खेल कर खुद को धन्य मानते थे। लेकिन आज यह महज खाना पूरी रह गया है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आईएसएल के पदार्पण से संतोष ट्रॉफी का रुतबा घटा है। यह भी देखने में आया है कि आज के फुटबॉलर लंबी छलांग लगाकर आई-लीग और आईएसएल टीमों में शामिल होना चाहते हैं। संतोष ट्रॉफी में खेलना उनके लिए कोई शान की बात नहीं है। लेकिन भारतीय फुटबॉल के इतिहास पर नजर डाले तो देश के लिए खेलने वाले सभी खिलाड़ी राष्ट्रीय चैम्पियनशिप से निकल कर आगे बढ़े। मोहन बागान, ईस्ट बंगाल, मोहम्मडन स्पोर्टिंग, मफतलाल, सर्विसेज, रेलवे, जेसीटी और दर्जनों क्लबों के खिलाड़ी खुद को तब तक संपूर्ण फुटबॉलर नहीं मानते थे जब तक संतोष ट्रॉफी में अपने राज्य और विभाग के लिए नहीं खेल जाते थे।
बीसवीं सदी के आखिरी तीन-चार दशकों के खिलाड़ियों के अनुसार, संतोष ट्रॉफी को फिर उसका गौरव लौटाने की जरूरत है। उनकी राय में आईएसएल से खिलाड़ी अपना भविष्य सुरक्षित कर सकते हैं लेकिन यदि देश की फुटबॉल को बचाना है तो संतोष ट्रॉफी को विशेष दर्जा देने की जरूरत है। यह न भूलें कि हाल के वर्षों में बाईचुंग भूटिया और सुनील छेत्री जैसे खिलाड़ी भी संतोष ट्रॉफी की देने रहे हैं।