- सिर्फ हॉकी में ही नहीं क्रिकेट को छोड़ तमाम खेलों में हमारे खिलाड़ियों और टीमों का स्तर उठने की बजाय गिर रहा है
- तमाम साधन-सुविधाओं के बावजूद भारी-भरकम बजट वाले भारतीय खेल और खिलाड़ी एशियाई देशों में भी वर्चस्व स्थापित नहीं कर पा रहे
- टीम खेलों फुटबॉल, वॉलीबॉल, बास्केबॉल आदि में हमारे पुरुष और महिला खिलाड़ी लगातार अपयश क्यों बटोर रहे हैं क्योंकि अधिकतर खेलों में हमारे पड़ोसी नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान आदि भारतीय खिलाड़ियों का खेल बिगाड़ डालते हैं
- हम ओलम्पिक मेजबानी का दम भर रहे हैं लेकिन चीन, जापान और कोरिया से पार पाना भारतीय खिलाड़ियों के बूते की बात नहीं है क्योंकि लगभग दस अन्य एशियाई देशों का औसत प्रदर्शन भी भारतीय खिलाड़ियों के मुकाबले कहीं बेहतर बैठता है
राजेंद्र सजवान
लगभग चार दशक पहले तक भारतीय हॉकी का मान-सम्मान काफी ऊंचाई पर था। तब जर्मनी, हॉलैंड और ऑस्ट्रेलिया के अलावा पाकिस्तान हमारे प्रबल प्रतिद्वंद्वी माने जाते थे। बाकी टीमों को कुछ खास भाव नहीं दिया जाता था। महिला हॉकी ने भले ही देर में रफ्तार पकड़ी लेकिन चंद एशियाई देशों को छोड़ भारतीय महिलाएं हल्की टीमों के सामने कमजोर साबित हो रही है। ओलम्पिक क्वालीफायर में जापान और अमेरिका बाधा बने। लिहाजा महिला टीम पेरिस ओलम्पिक का टिकट नहीं पा सकी।
सिर्फ हॉकी में ही नहीं क्रिकेट को छोड़ तमाम खेलों में हमारे खिलाड़ियों और टीमों का स्तर उठने की बजाय गिर रहा है। हॉकी में पाकिस्तान अपने अंतर कलह के चलते कमजोर पड़ा है। उसकी क्रिकेट टीम भी पहले जैसी नहीं रही। पाकिस्तान के पास भाला फेंक का ओलम्पिक चैम्पियन है तो अन्य खेलों में उसकी हालत खस्ता है। तमाम साधन-सुविधाओं के बावजूद भारी-भरकम बजट वाले भारतीय खेल और खिलाड़ी एशियाई देशों में भी वर्चस्व स्थापित नहीं कर पा रहे। टीम खेलों फुटबॉल, वॉलीबॉल, बास्केबॉल आदि में हमारे पुरुष और महिला खिलाड़ी लगातार अपयश क्यों बटोर रहे हैं? अधिकतर खेलों में हमारे पड़ोसी नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान आदि भारतीय खिलाड़ियों का खेल क्यों बिगाड़ डालते हैं? हालांकि हम ओलम्पिक मेजबानी का दम भर रहे हैं लेकिन चीन, जापान और कोरिया से पार पाना भारतीय खिलाड़ियों के बूते की बात नहीं है। लगभग दस अन्य एशियाई देशों का औसत प्रदर्शन भी भारतीय खिलाड़ियों के मुकाबले कहीं बेहतर बैठता है।
करोड़ों खर्च करने और देशवासियों के टैक्स की कमाई लुटाने के बावजूद भी बहुत से ऐसे खेल हैं, जिनमें हमारे खिलाड़ी पदकों का खाता भी नहीं खोल पाते। जिम्नास्टिक, तैराकी और अनेक मार्शल आर्ट्स खेलों में हम आज भी जीरो से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। फुटबॉल में हम कभी एशिया के सरताज थे। आज नेपाल, बांग्लादेश और अफगानिस्तान भारतीय पुरुष और महिला टीमों पर भारी पड़ रहे हैं। तो फिर हम खेलों में अपनी तरक्की का बखान क्यों करते है? भले ही हमारी सरकारों का लक्ष्य ओलम्पिक मेजबानी है। हम तेजी से तरक्की करने वाली अर्थव्यवस्था हो सकते हैं लेकिन खेलों में हमारी हालत अल्पविकसित देश जैसी है। गिरेबान में झांककर देखें तो जनसंख्या की दृष्टि से भारतीय खेलों की हालत बेहद दयनीय है। हम तो गली के शेर भी नहीं हैं।