राजेंद्र सजवान
देश के खो खो खिलाड़ियों, कोचों और खेल में रुचि रखने वालों ने शायद ही कभी सोचा होगा कि भारतीय खो खो कभी हॉकी की तरह ऊंची छलांग लगा पाएगी। बेशक़, पिछले कुछ सालों से और खासकर विश्व कप के आयोजन से बहुत कुछ बदल रहा है। जैसा कि विदित है कि खो खो को ओडिशा सरकार ने गोद ले लिया है। ठीक उसी प्रकार जैसे भारतीय हॉकी को नवीन पटनायक सरकार ने 2018 में गोद लिया था, जिसका सुखद परिणाम यह रहा कि लगातार दो ओलम्पिक खेलों में भारतीय हॉकी ऊंची छलांग लगाते हुए दो बार कांस्य पदक जीतने में सफल रही है और एक बार फिर पुराना गौरव पाने के लिए प्रयासरत है।
मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि जनवरी 2025 से दिसंबर 2027 तक ओडिशा सरकार खो-खो पर पांच करोड़ रुपये का निवेश करेगी। ऐसा स्वदेशी खेलों को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है। वे चाहते हैं कि जिस प्रकार हॉकी के पुनर्जागरण में उनके राज्य की भूमिका रही है, उसी प्रकार खो खो को ऊंचाई पर ले जाएंगे। फिलहाल खो खो वर्ल्ड के आयोजन और विश्व विजेता बनने के बाद देश में इस विशुद्ध भारतीय खेल में बहुत कुछ बदल सकता है, ऐसी उम्मीद है।
लेकिन क्या भारत अपनी बादशाहत कायम रख पाएगा? क्या देश का खेल मंत्रालय और ओलम्पिक संघ खो खो को बिना शर्त मान्यता देंगे? इन सवालों के जवाब भविष्य की गर्त में हैं। उड़ीसा की तरह कुछ अन्य राज्य और औद्योगिक घराने भी खो खो को प्रोमोट करने के लिए आगे बढ़ सकते हैं, ऐसा भारतीय और वैश्विक खो खो फेडरेशन के अध्यक्ष सुधांशु मित्तल और महासचिव त्यागी का मानना है। जाहिर है कि हॉकी के बाद एक और विशुद्ध भारतीय खेल विश्व पटल पर ऊंची पहचान बनाने में सफल रहेगा।लेकिन कब तक?
इसमें दो राय नहीं कि वर्ल्ड कप का आयोजन शानदार रहा। मेहमान खिलाडियों ने भी भारतीय फेडरेशन के प्रयासों को सराहा। खेल के साथ साथ उन्होंने माहौल और अतिथि सत्कार की भारतीय परंपरा को सराहा तो मेजबान भारत ने दोनों खिताब जीत कर अपना कद और ऊंचा किया है, जिसे बरकरार रखना बड़ी चुनौती रहेगी।