राजेंद्र सजवान
राष्ट्रीय खेलों के 38वें संस्करण के आयोजन की जिम्मेदारी पर्वतीय प्रदेश उत्तराखंड ने उठाई है, जिसके लिए प्रदेश सरकार ने सभी जरूरी इंतजाम किए हैं, ऐसा प्रदेश के मुख्यमंत्री धामी और उनकी आयोजन समिति का कहना है। बेशक, उत्तराखंड खेलों के सफल आयोजन के लिए कोई कसर नहीं रख छोड़ेगा, क्योंकि प्रदेश का यह पहला सबसे बड़ा खेल महाकुंभ है, जिसे प्रदेश के लिए अग्नि परीक्षा माना जा रहा है।
राष्ट्रीय खेलों के इतिहास पर सरसरी नजर डालें तो इन खेलों की शुरुआत आजादी के तुरंत बाद साल 1948 में लखनऊ में हुई थी। तत्पश्चात 1970 तक इन खेलों का आयोजन दो साल के अंतराल के बाद किया जाता रहा। लेकिन फिर नौ साल के लंबे ब्रेक बाद 1979 में जाकर खेलों का सिलसिला शुरू हुआ। 1985 में नई दिल्ली में आयोजित खेलों के बाद दो, तीन चार साल के अंतराल खेल आयोजित किए जाते रहे। 1999 में मणिपुर में आयोजित खेल नॉर्थ-ईस्ट का पहला बड़ा आयोजन था। यहीं से नॉर्थ-ईस्ट के खिलाड़ियों ने बड़ी पहचान बनाई और तेज रफ्तार के साथ राष्ट्रीय मंच पर उभर कर आए। इंफाल के बाद पंजाब, आंध्र प्रदेश, गुवाहाटी, झारखंड, केरल और गुजरात होते हुए राष्ट्रीय खेल हांफते हुए उत्तराखंड पहुंचे। उम्मीद की जा रही है कि मणिपुर की तरह उत्तराखंड के खिलाड़ियों के लिए राष्ट्रीय खेल वरदान साबित होंगे और प्रदेश के खेल चौगुनी प्रगति करेंगे।
लेकिन एक सवाल अक्सर पूछा जाता है कि राष्ट्रीय खेलों के आयोजन का औचित्य क्या है और क्यों इन खेलों पर करोड़ों रुपया बहाया जाता है? यह भी माना जाता है कि सरकारें इन खेलों का आयोजन राजनीतिक लाभ कमाने के लिए करती आई हैं। हो सकता है कि इन आरोपों में दम हो। लेकिन उत्तराखंड के लिए ये खेल बदलाव का दौर है। जहां कही खेलों का आयोजन किया जा रहा है, वहां नए स्टेडियम बनेंगे, पुरानों को फिर से सजाया, संवारा जाएगा और अत्याधुनिक तकनीक और उपकरण प्रदेश के खिलाड़ियों तक पहुंचेंगे। हालांकि यह देखने में आया है कि राष्ट्रीय खेलों के बाद तमाम आयोजन स्थल वीराने पड़ जाते हैं। खेल उपकरणों और सुविधाएं धूल में मिल जाते हैं। खैर, फिलहाल उत्तराखंड के लिए सफल और शानदार आयोजन बड़ी चुनौती है। यह मौका है कि उत्तराखंड भारतीय खेल मानचित्र पर बड़ी पहचान बन कर उभर सकता है। अर्थात नहीं तो फिर शायद कभी नहीं।