ऐसी फुटबॉल ‘ब्रिगेड’ देखी ना सुनी
- गोरखा ब्रिगेड सा ना कोय, जिसका एक समय हुआ करता था भारतीय फुटबॉल में जलवा
- 1966 और 1969 में डूरंड कप जीतने वाली गोरखा ब्रिगेड ने मोहन बागान, ईस्ट बंगाल, मोहम्मडन स्पोर्टिंग और तमाम नामी क्लबों पर भी दबदबा बनाया
राजेंद्र सजवान
गृहयुद्ध और अंतर्कलह से जूझ रहे नेपाल को छोटा भारत कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इतिहासकारों की माने तो कभी नेपाल भी भारत का हिस्सा था यही कारण है कि दोनों देशों की धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियां लगभग एक जैसी हैं। खासकर गढ़वाल, कुमाऊं और पूर्वोत्तर के भारतीय प्रदेश काफी हद तक नेपाल के बिछुड़े भाई लगते हैं, जिनमें आपसी प्यार-मोहब्बत और आदर सम्मान हमेशा से बरकरार रहा है।
बेशक़ भारत ने हमेशा नेपाली और नेपाली मूल के भारतवासियों को कभी भी खुद से अलग नहीं होने दिया। कुछ ऐसा ही नज़ारा खेल मैदानों पर भी देखा जाता रहा है। खासकर फुटबॉल ऐसा खेल रहा है जिसमें नेपाली (गोरखा) खिलाड़ियों का योगदान बढ़-चढ़कर रहा जिसमें गोरखा राइफल्स, गोरखा रेजीमेंट और भारतीय फौज की अन्य इकाइयों के गोरखा खिलाड़ियों ने भारतीय फुटबॉल को गौरवान्वित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
देश के फुटबॉल प्रेमियों ने रणजीत थापा, श्याम थापा, बीएस रावत (स्कूटर), हरिकृष्ण थापा, अमर बहादुर, नरसिंह, रतन थापा, बिक्रम बहादुर, नरेंद्र मल, नरेंद्र गुरुंग, सीबी थापा, नरेंद्र थापा और दर्जनों अन्य फुटबॉलरों के नाम सुने होंगे। आजादी के बाद जब कभी भारतीय फुटबॉल ने करिश्माई प्रदर्शन किया उसमें नेपाली मूल के और नेपाल से भारत में आ बसे खिलाड़ियों का योगदान बढ़-चढ़कर रहा। हमारे स्टार फॉरवर्ड सुनील छेत्री का उदाहरण सामने है जिनके माता-पिता नेपाल से भारत आकर बसे।
पिछली सदी के 60-70 के दशक में ‘गोरखा ब्रिगेड’ ने भारतीय फुटबॉल में जैसा धमाकेदार प्रदर्शन किया, वो आज तक भारतीय फुटबॉल प्रेमी भूले नहीं होंगे। 1966 और 1969 में डूरंड कप जीतने वाली गोरखा ब्रिगेड ने मोहन बागान, ईस्ट बंगाल, मोहम्मडन स्पोर्टिंग और देश के तमाम नामी क्लबों को हैरान परेशान तो किया साथ ही गोरखाली दमखम और कलाकारी के दर्शन भी कराए। श्याम थापा की बाईसिकल वॉली, रणजीत थापा के दनदनाते शॉट, बीएस रावत की स्पीड और स्कोरिंग, रतन थापा के नपे-तुले क्रॉस और तमाम खिलाड़ियों के कौशल ने भारतीय फुटबॉल में जैसे हड़कंप मचा दिया। बाद के सालों में गोरखा ब्रिगेड की फुटबॉल टीम द्वारा मफतलाल ग्रुप का दामन थामना नया मोड़ था। हालांकि मफतलाल ने भी अनेकों यादगार प्रदर्शन किए लेकिन बहादुरी और दिलेरी की मिसाल रहे गोरखाली खिलाड़ी फिर कभी एकजुट नहीं हो पाए। बेशक़, भारतीय सेना में उनका योगदान हमेशा से बढ़-चढ़कर रहा है तो भारतीय फुटबॉल ने उनके कौशल से बड़ा नाम सम्मान भी कमाया।
आज की भारतीय फुटबॉल में नेपाली मूल के खिलाड़ी भले ही कम हुए हैं लेकिन देश के लिए खेलने और मर-मिटने का जज्बा बरकरार है। इसलिए क्योंकि नेपाली (गोरखा) दाज्यू भारत को अपना दूसरा नहीं पहला घर मानते हैं।