ब्लू टाइगर या ‘रंगा’ सियार फैसला आपके हाथ!
- हार दर हार गिरावट की तमाम हदें पार करने वाली फुटबॉल जब बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार, थाईलैंड, इंडोनेशिया, अफगानिस्तान आदि फिसड्डी देशों से पिटती है तो पंचतंत्र का सियार दिल दिमाग पर छा जाता है
- यही कारण है कि आम भारतीय फुटबॉल प्रेमी ने देश की फुटबॉल से नाता तोड़ लिया है और वह यूरोप, लेटिन अमेरिका और अफ्रीकी देशों की फुटबॉल को देखने के लिए विवश है
- याद रहे है कि जब खेलने के लिए जूते और ड्रेस नहीं थी और विदेश यात्राओं का खर्च निकालना भारी था तब भारतीय फुटबॉल ने ऊंचा नाम सम्मान कमाया लेकिन आज निचले दर्जे के खिलाड़ी लाखों करोड़ों कमा रहे हैं और फिर भी देश के लिए अपयश बटोर रहे हैं
- देश के जाने-माने पूर्व खिलाड़ियों के अनुसार, जो टीम और खिलाड़ी सिर्फ हारने के लिए खेलते हैं उन्हें ‘टाइगर’ कहना कहां तक ठीक है? कौन है जिसे टाइगर और ‘रंगा’ सियार का फर्क तक पता नहीं है?
राजेंद्र सजवान
बचपन में पंचतंत्र की एक कहानी पढ़ा-सुना करते थे कि कैसे एक सियार रंगरेज़ के बर्तन में गिरकर नीला हो गया था और फिर उसने कैसे इस अनोखे रंग रूप का फायदा उठाया। उसने जंगल के तमाम बड़े छोटे जानवरों पर रौब गांठना शुरू कर दिया और बाकी जानवरों को कहता कि देवताओं ने उसे उन सब पर राज करने के लिए भेजा है और उन्हें अपने राजा और देवदूत के सम्मान में सर झुकाना चाहिए। लेकिन जब एक दिन उसकी पोल खुली तो क्या हाल हुआ? देश के नौनिहाल को पता है। कुछ ऐसा ही हाल भारतीय फुटबॉल का है जो कि वीरगाथाओं का चोला उतरने के बाद भी पंचतंत्र का सियार बनी हुई है।

बेशक़, कुछ फुटबॉल प्रेमियों को यह सम्बोधन बुरा लगे लेकिन तमाम पराजयों, गिरावट की हद पार करने और लाखों-करोड़ों देशवासियों का दिल तोड़ने वाली फुटबॉल को जब हमारा भटका हुआ मीडिया और उसकी माई बाप ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) ‘ब्लू टाइगर्स’ बुलाती है तो फुटबॉल के समर्पित प्रशंसकों का खून खौल जाता है। हार दर हार गिरावट की तमाम हदें पार करने वाली फुटबॉल जब बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार, थाईलैंड, इंडोनेशिया, अफगानिस्तान आदि फिसड्डी देशों से पिटती है तो पंचतंत्र का सियार दिल दिमाग पर छा जाता है। यही कारण है कि आम भारतीय फुटबॉल प्रेमी ने देश की फुटबॉल से नाता तोड़ लिया है और वह यूरोप, लेटिन अमेरिका और अफ्रीकी देशों की फुटबॉल को देखने के लिए विवश है।

देश के जाने-माने पूर्व खिलाड़ियों से जब उनकी बेरुखी के बारे में बात होती है तो उनका पहला सवाल यह होता है कि जो टीम और खिलाड़ी सिर्फ हारने के लिए खेलते हैं उन्हें ‘टाइगर’ कहना कहां तक ठीक है? कौन है जिसे टाइगर और ‘रंगा’ सियार का फर्क तक पता नहीं है? लेकिन एआईएफएफ, उसके चाटुकार मीडिया और फुटबॉल प्रेमियों का एक मंद बुद्धि वर्ग लगातार भारतीय फुटबॉल के नकारापन को ढांपने में लगा है। कुछ पूर्व खिलाड़ियों के अनुसार ऐसे ही चाटुकारों के कारण भारतीय फुटबॉल रसातल में पहुंच गई है। याद करते हुए कहते हैं कि जब खेलने के लिए जूते और ड्रेस नहीं थी और विदेश यात्राओं का खर्च निकालना भारी था तब भारतीय फुटबॉल ने ऊंचा नाम सम्मान कमाया। लेकिन आज निचले दर्जे के खिलाड़ी लाखों करोड़ों कमा रहे हैं और देश के लिए अपयश बटोर रहे हैं। ऐसे खिलाड़ियों, उनको बढ़ावा देने वाले मीडिया और फेडरेशन के नाकारा अधिकारीयों को टाइगर कहें या ‘रंगा’ सियार? पूछता है भारत!

