क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
Grand Slam 2020 – जब कभी कोई विदेशी खिलाड़ी किसी ग्रांड स्लैम टेनिस का खिताब जीतता है तो आम भारतीय टेनिस प्रेमी के दिल ज़ुबाँ पर एक ही बात होती है, ‘कब कोई भारतीय ऐसा करिश्मा कर पाएगा’! यह ख्वाब हम पिछले सौ सालों से देखते आ रहे हैं लेकिन आज तक खिताब जीतना तो दूर, आस पास भी कोई नहीं पहुँच पाया। भारतीय टेनिस का दुर्भाग्य यह रहा है कि इस खेल का कारोबार करने वालों ने कभी भी खेल और खिलाड़ियों की तरफ ध्यान नहीं दिया।
अपने नाम पर स्टेडियम और इमारतें खड़ी कर टेनिस के तथाकथित शुभचिंतकों ने अपनी आने वाली पीढ़ियों का भला ज़रूर किया पर भारतीय टेनिस को गर्त में डुबोने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वरना क्या कारण है कि 140 करोड़ की आबादी वाले देश में कोई ओलंपिक चैम्पियन और ग्रांड स्लैम चैम्पियन पैदा नहीं हुआ। यह सही है कि लीयेंडर पेस और महेश भूपति की जोड़ी ने अनेक बार ग्रांड स्लैम खिताब जीते पर एकल विजेता की वर्षों से बाट जोह रहे हैं।
कोरोना काल में जब राफ़ेल नडाल ने फ्रैंच ओपन का खिताब जीत कर अपने परंपरागत प्रतिद्वंद्वी रोजर फेडरर का कुल 20 ग्रांड स्लैम खिताब जीतने का रिकार्ड बराबर किया तो आम भारतीय टेनिस प्रेमी ने भी खूब तालियाँ बजाईं|। नडाल को मीडिया ने समुचित स्थान दिया लेकिन भारतीय टेनिस की दुखती रग पर फिर से हाथ रख दिया। देश के कुछ टेनिस पंडितों को फिर याद हो आया कि कोई भारतीय खिलाड़ी कब आस्ट्रेलियन, अमेरिकन, विंबलडन या फ्रेंच ओपन जीत पाएगा!
भारत में पुरुष टेनिस के श्रेष्ठ खिलाड़ियों पर सरसरी नज़र डालें तो राम नाथन कृष्णन, विजय अमृत राज, रमेश कृष्णन, लीयेंडर पेस जैसे नाम ख़ासे लोकप्रिय रहे और महिलाओं में सिर्फ़ और सिर्फ़ एक सानिया मिर्ज़ा का नाम चर्चा में रहा है| राम नाथन कृष्णन और विजय अमृत राज ने अपने समकालीन चैम्पियनों को कड़ी टक्कर तो दी लेकिन आर्थर एश, जिम्मी कॉनर्स, मैकनरो, बोर्ग, मैट्स विलेंडर, एडबर्ग , बेकर जैसी कामयाबी अर्जित नहीं कर पाए| महिलाओं में बिली जीन किंग, क्रिस एवर्ट, मार्टिना, स्टेफ़ी ग्राफ, विलियम्स, सेलेस जैसे नामों ने खूब धूम मचाई| इन नामों में सानिया मिर्ज़ा का नाम शामिल करना भी अटपटा सा लगता है।
लेकिन सानिया क्या करे? वह जो कुछ कर पाई अपने और अपने परिवार के दम पर किया। भारतीय टेनिस संघ के पास ना तो अच्छे कोच हैं और ना कोई रणनीति। इसी प्रकार कृष्णन और अमृतराज परिवारों ने देश को जो कुछ सम्मान दिलाया उसमें भी उनकी अपनी भूमिका रही। टेनिस के खैर ख्वाहों ने तो विजय,रमेश और लीयेंडर की राह में काँटे बिछाने का काम ज़्यादा किया। नतीजा सामने है, भारत एक भी ग्रांड स्लैम विजेता तैयार नहीं कर पाया और हालत इतने बदतर हैं कि आने वाले कई सालों तक भी हम किसी अपने के लिए तालियाँ नहीं बजा पाएँगे।