क्लीन बोल्ड/राजेंद्र सजवान
भारत और कतर के बीच खेले गए वर्ल्ड कप क्वालीफायर मैच के नतीजे से यह साफ हो गया है कि एशियाई टीमों के लिए फीफा रैंकिंग के कोई मायने नहीं हैं। उनके लिए यह रैंकिंग सिर्फ नाम मात्र की है।
एक तरफ एशिया का चैंपियन कतर और दूसरी तरफ भारतीय फुटबाल टीम। दोनों के बीच खेले गए बेदम मुकाबले में यदि कुछ उल्लेखनीय था तो भारतीय गोली गुरप्रीत सिंह संधू का प्रदर्शन, जिसने कमसे कम आधा दर्जन गोल बचाए तो मेजबान कतारी ख़िलाड़ियों ने दर्जन भर अवसरों पर गलत निशाने लगाए।
जहां तक भारतीय फुटबाल टीम की बात है तो उसने एक बीमार फुटबाल राष्ट्र जैसा प्रदर्शन किया। रक्षा पंक्ति के खिलाड़ी राहुल भेके की नादानी का नतीजा यह रहा कि उसे लाल कार्ड देख कर मैदान छोड़ना पड़ा। टीम कोच इगोर और उनके कुछ खिलाड़ियों ने मैच रेफरी के साथ जैसा व्यवहार किया उसकी जितनी भी निंदा की जाए कम होगी। गनीमत है कोच कार्ड देखने से बच गए।
यह सही है कि मेहमान टीम अपने से बेहतर रैंकिंग वाले प्रतिद्वंद्वी से पिछले मुकाबले वाला परिणाम चाहती थी, जबकि मैच ड्रा पर समाप्त हुआ था। लेकिन पूरी तरह रक्षात्मक खेलने के बाद भी हार गई। जहां तक विजेता टीम की बात है तो वह पूरे समय भारतीय गोल के इर्द गिर्द खेली। एक के बाद एक आक्रमण किए लेकिन निशाने लक्ष्य से भटकते रहे।
भले ही भारतीय कोच ने पूरी तरह राक्षत्मक रणनीति अपनाई थी लेकिन विश्व कप खेलने की तैयारियों में जुटी कतर का प्रदर्शन किसी भी स्तर पर सराहनीय नहीं कहा जा सकता। यह तो वही बात हुए, नाम बड़े…।
फुटबाल के खेल में जीत उसी टीम की होती है जो गोल जमाने की कलाकारी में माहिर होती है। इस लिहाज से कतर को बेहद कमजोर कहा जाएगा, जिसके अधिकांश फारवर्ड खिलाड़ी नौसिखिया लगते हैं। जहां तक भारत की बात है तो जब तक हमारे खिलाड़ी विपक्षी रक्षा पंक्ति और गोली को चकमा नहीं दे सकते, गोल का सवाल ही पैदा नहीं होता।
यह सही है कि कोरोना के चलते भारतीय टीम को एकजुट खेलने के मौके कम मिले हैं। लेकिन मैच में भारतीय खिलाड़ी सिर्फ दस फीसदी अवसरों पर ही बाल को संभाल पाए और सिर्फ बचाव में लगे रहे। बेशक, संधू मैच बचाने वाला भरोसे का गोलकीपर साबित हुआ।
भारत को एक गोल से हराने वाली कतारी टीम यदि यह सोच रही है कि वह अपनी मेजबानी में आयोजित होने वाले विश्व कप में झंडे गाड़ देगी तो यह उसकी खुश फहमी होगी। जो टीम बीस में से एक भी शाट टारगेट के आस पास नहीं मार सके उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि मेजबान बेकार ही इस नकारा टीम पर करोड़ों खर्च कर रहा है। विश्वकप के लिए ज्यादा वक्त नहीं बचा है। टीम प्रबंधन को चाहिए कि कुछ एक सधे हुए फारवर्ड तैयार करे।
कतर सिर्फ मिडफ़ील्ड तक खेलना जानती है। गोल मारने की कलाकारी सीखने में उसके खिलाड़ियों को शायद वर्षों लग जाएं। जो खिलाड़ी भारत जैसी मरियल टीम पर गोल नहीं जमा सकती उसके लिए यूरोप और लेटिन अमेरिका के देशों से निपटना भारी रहेगा। अपनी मेजबानी में भारत जैसी टीम को छकाना लेकिन गोल नहीं जमा पाना बताता है कि कुवैत को अभी बहुत कुछ सीखना है। खासकर , उसे कुछ अचूक निशानेबाज खिलाड़ियों की जरूरत है।
रही तथाकथित ब्लू ‘टाइगर्स’ की बात तो बेचारे मेमने भर रह गए हैं। एआईएफएफ के कुछ बंधुआ कमेंटेटरों ने अपने खिलाड़ियों को कुछ ज्यादा सिर चढा रखा है। आखिर कब तक संधू और रक्षा पंक्ति के दम पर डींग हांकते रहेंगे। वर्ल्ड कप क्वालीफायर में आगे बढ़ने का सपना टूट चुका है। देखना यह होगा कि अफगानिस्तान और बांग्ला देश के विरुद्ध कैसा खेलते हैं! उनसे भी नीचे के पायेदान पर रहे तो बेहतर होगा, खेलना छोड़ दें।
भारतीय फुटबॉल का स्वर्णिम युग का अंत कप्तान जरनैल सिंह के साथ ही हो गया। मेलबर्न ओलिम्पिक गेम्स 1956 के बाद शायद ही कभी भारतीय फुटबॉल टीम शानदार प्रदर्शन किया हो।
किसी तरह एशियान गेम्स के लिए क्वालीफाइ कर लिया था। वर्ल्ड कप क्वालिफिकेशन के आस पास भी नही है।
भारतीय खेल प्राधिकरण के स्पेशल एरिया गेम्स स्कीम ने कुछ प्रयास किया था अच्छे खिलाड़ियों और अनुभवी कोच और स्पोर्ट्स साइंस के मदद से मगर, फेडरेशन और खेल मंत्रालय दोनों ने ही कोई दिलचस्पी नही दिखाई।
जब तक स्पेशल एरिया गेम्स के तर्ज पर फुटबॉल खिलाड़ी तैयार नही किये जाते, भारत का एशिया में भी जगह बनाना मुश्किल है।
सादर