राजेंद्र सजवान/क्लीन बोल्ड
आज देश ‘शिक्षक दिवस’ मना रहा है। पूर्व राष्ट्रपति और महान शिक्षक डॉक्टर राधा कृष्णन के आदर्शों को याद किया जा रहा है, कसमें खाई जा रही हैं। बेशक, पांच सितंबर का दिन जीवन के हर क्षेत्र के गुरुओं के लिए खास महत्व रखता है।
चिकित्सा, विज्ञान, कला, साहित्य के हर क्षेत्र के महान शिक्षकों को प्रणाम करने का दिन है। लेकिन यह संयोग है कि जिस क्षेत्र में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने तेज कदम बढ़ाने शुरू किए हैं उसके शिक्षक , गुरु और कोचों की हालत अच्छी नहीं है और उनकी खबर लेने वाला भी कोई नहीं है।
जी हां, आज सबसे ज्यादा उदास, हताश और जर्जर हालत में भारत का खेल शिक्षक है। जिस शिक्षक ने मिल्खा सिंह, पीटी उषा, सुनील गावस्कर, राम नाथन कृष्णन, प्रकाश पादुकोण, सचिन तेंदुलकर, लिएंडर, मल्लेश्वरी, सुशील, योगेश्वर, विजेंदर, सिंधु, नीरज चोपड़ा और सैकड़ों अन्य सितारों को जगमगाने की राह दिखाई, प्रारंभिक फिटनेस और खेल शिक्षा के गुर सिखाए उसकी हालत अच्छी नहीं है।
यह सही है कि किसी खिलाड़ी की कामयाबी के पीछे उसके कोच का हाथ होता है लेकिन उसे खेल की तरफ प्रेरित करने वाला और उसकी बुनियाद पक्की करने वाला खेल शिक्षक है, जिसे हम पीटीआई, पीईटी या जीरो पीरियड वाला कह कर संबोधित करते हैं।
दुर्भाग्यवश, शारीरिक शिक्षा और खेल का पहला सबक सिखाने वाला भारत का खेल शिक्षक कोरोना के चलते लाचार है और दाने दाने के लिए मोहताज हो गया है। कोरोना काल उसके लिए महाकाल बन कर आया है।
देखा जाए तो कोरोना का सबसे बड़ा और बुरा असर खेल और खेल शिक्षकों पर पड़ा है। भले ही टोक्यो ओलंम्पिक एक साल की देरी के बाद संभव हो गया, खेल गतिविधियां भी चल निकली हैं।
लेकिन खेल शिक्षक अब भी घरों में कैद हैं, क्योंकि उनमें से ज्यादातर की नौकरियाँ या तो बहाल नहीं हुई हैं या उन्हें कार्यमुक्त कर दिया गया है। एक अनुमान के अनुसार विभिन्न प्रदेशों के लाखों शारीरिक शिक्षक लगभग डेढ़ साल से बेरोजगार घूम रहे हैं और ज्यादातर के परिवार दरबदर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं।
जिन शिक्षकों का कोई ठौर ठिकाना नहीं, जिनकी क्लास किसी खाली प्लाट, मकान, पार्क या सड़क किनारे चलती हैं उनकी हालत का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। जूडो, कराटे, ताइक्वांडो, वुशु, कबड्डी, कुश्ती, मलखम्ब और अन्य मार्शल आर्ट्स और पारम्परिक भारतीय खेलों को सिखाने पढाने वाले शिक्षक का दर्द बांटने वाला कोई नहीं है।
कई शिक्षक और ट्रेनर अपना दुखड़ा रोते हुए कहते हैं कि महामारी ने उन्हें कई साल पीछे नरक में धकेल दिया है। सरकार, खेल संघ और तमाम जिम्मेदार लोग सिर्फ झूठे वादे कर रहे हैं। मदद किसी से नहीं मिली और भविष्य में भी कोई संभावना नहीं है क्योंकि सरकारों को कमाऊ पूत और पदक विजेता मिल गए हैं।
एक सर्वे से पता चला है कि सैकड़ों शिक्षक डिप्रेशन में जी रहे हैं और कुछ एक आत्म हत्या भी कर चुके हैं। हालांकि शिक्षक दिवस पर यह दुखड़ा रोना ठीक नहीं है लेकिन सरकारों को बताना जरूरी है कि वह जिन खिलाड़ियों की कामयाबी पर वाह वाह लूट रही है, उनको नारकीय जीवन जीना पड़ रहा है।
भले ही हमारे ओलंम्पिक और पैरालम्पिक खिलाड़ियों को अच्छे कोचों ने ट्रेंड किया है लेकिन उनकी बुनियाद शारीरिक शिक्षकों ने तैयार की है। वही शिक्षक आज गुमनामी और अभाव का जीवन जीने को मजबूर है।
प्राइवेट स्कूलों के कुछ खेल शिक्षको ने अपनी आपबीति सुनाते हुए कहा कि उन्हें कुछ महीने आधी सैलरी दी गई, तत्पश्चात कुछ भी नहीं मिल पा रहा।
जो शिक्षक सरकारी विभागों में कार्यरत हैं उन्हें सड़क पर चालान काटने ,ट्रैफिक संचालन और हस्पतालों में बीमारों के साथ जीने मारने की जिम्म्मेदरी सौंपी जा रही है। बाकी शिक्षक आन लाइन पढ़ा सिखा रहे हैं लेकिन शारीरिक शिक्षा और खेल के लिए ऐसा संभव नहीं है। तो फिर खेल शिक्षक क्या करे? कहाँ जाए?