पैरालम्पिक कमेटी असली गुनहगार
क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
“जीते जी उसे किसी ने नहीं पूछा लेकिन मरने के बाद हर कोई उसकी खोज खबर ले रहा है। खासकर, खेल- खिलाड़ियों की खबर लेने वाला मीडिया, आईपीएल के हुड़दंग के चलते भी उसके बारे में जानने के लिए बेताब है।” यह कहानी है पश्चिम बंगाल के 20 वर्षीय पैरा तैराक अमर्त्या चक्रबर्ती की, जिसने सही इलाज नहीं मिल पाने के चलते 19 अप्रैल को दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल मेआखिरी सांस ली।
राष्ट्रीय स्तर पर 30 से ज्यादा पदक जीतने वाला तैराक आर्टिरियोवेन्स मैलफार्मेशन (AVM) अर्थात धमनीविस्फार विकृति नामक बीमारी से ग्रसित था। गरीब पिता अमितोष चक्रबर्ती ने अपनी इकलौती संतान को बचाने के लिए सबकुछ दांव पर लगा दिया। खेल मंत्रालय, देश के खेलों को प्रोत्साहन देने वाले औद्योगिक घरानों और दिव्यांग खिलाड़ियों की ठेकेदार फेडरेशन से बार-बार निवेदन किया लेकिन कहीं से कोई मदद नहीं मिली। यदि उम्मीद की कोई किरण नजर आई तो वह थी जानी-मानी तैराक डॉ. मीनाक्षी पाहुजा, जिनके आग्रह पर “sajwansports.com और sachhi baat.com” ने जिंदगी-मौत के बीच झूल रहे तैराक के दर्द को देश के साथ 28 मार्च को साझा किया था।
सच्चाई यह है कि अमर्त्या की बीमारी सहानुभूति से ठीक होने वाली नहीं थी। विदेश में तुरंत इलाज की जरूरत थी जिसका खर्च लगभग चालीस लाख तक बताया गया, जो कि सम्भव नहीं हो पाया और अमर्त्या इस दुनिया से विदा हो गया। बेटा तो चला गया लेकिन परिवार को लाखों के कर्ज में डुबो गया है। सबसे बड़े अफ़सोस की बात यह है कि लाचार पिता ने देश के तमाम टीवी चैनलों, समाचार पत्रों और सोशल मीडिया के चक्कर काटे लेकिन किसी ने उनकी एक नहीं सुनी। आज वही समाचार पत्र और समाचार एजेंसियां “ब्रेकिंग न्यूज” बता कर दिवंगत तैराक कि खबर को नमक मिर्च के साथ परोस रहे हैं।
यह सही है कि भारतीय मीडिया को क्रिकेट से फ़ुर्सत नहीं है। वैसे भी आईपीएल के चलते कुछ भी नहीं चलता लेकिन देश के खेल मंत्रालय को अपने कान खुले जरूर रखने चाहिए। दिव्यांग खिलाड़ियों कि आड़ में अपनी दूकान चलाने वाली पीसीआई से भी पूछा जा सकता है कि उसने अमर्त्या की पीड़ा को क्यों नहीं समझा। यह न भूलें कि अमर्त्या अकेला प्रताड़ित खिलाड़ी नहीं है जो इलाज नहीं मिल पाने के कारण मरा हो। अनेक खिलाड़ी हैं जो अपने दर्द को साझा नहीं कर पाते। इसका कारण है कि मीडिया उनकी खबर नहीं लेता। उनके अनुसार भारतीय खेल पत्रकारिता मर चुकी है। उसे सिर्फ ओलम्पिक में पदक जीतने वाले खिलाड़ियों से मतलब है। हजारों लाखों संघर्षरत खिलाड़ी क्रिकेट के गुलाम मीडिया को दिखाई नहीं देते ।
लेखक ने जब कुछ दिव्यांग खिलाड़ियों से जानना चाहा तो उन्होंने डरते-डरते कहा कि पैरालम्पिक कमेटी अपने खिलाड़ियों का खून चूस रही है। कोई विरोध करता है तो उन्हें करियर खराब करने कि धमकी देकर चुप करा दिया जाता है। हैरानी वाली बात यह है कि गुनहगारों में पैरा खिलाड़ी भी शामिल हैं। नाम सम्मान और पैसा कमाने के बाद वे अपनों को लूटने में लगे हैं। इनमें कुछ एक ओलम्पियन भी शामिल हैं, जिन पर अनुशासनहीनता के आरोप लगे हैं।