क्लीन बोल्ड/ राजेन्द्र सजवान
एक समय दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल फुटबाल में बड़ी ताकत कहा जाने वाला भारत आज पिछड़ा क्यों है? क्यों भारतीय फुटबाल लगातार प्रयासों के बावजूद भी संभल नहीं पा रही?
फुटबाल जानकारों और विशेषज्ञों की मानें तो साधन सुविधाओं और प्रोत्साहन की कमी के चलते भारत पीछे रह गया लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है जोकि यह मानता है कि अपने पूर्व चैंपियनों को भुलाने और उनकी उपलब्धियों की अनदेखी करने की सजा झेल रही है भारतीय फुटबाल।
आज़ादी बाद से लेकर 1970 तक जिन खिलाड़ियों ने देश को मान सम्मान दिलाया, उनकी कभी खबर नहीं ली गई। किसी ने भी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि 1951 और 1962 के एशियाई खेलों में स्वर्ण जीतने वाले चैम्पियल किस हाल में हैं। कोरिया, जापान, ईरान जैसी ताकतवर टीमों को परास्त करने वाले खिलाड़ी कहाँ हैं और कैसा जीवन जी रहे है, सरकारों और फेडरेशन ने भी जानने की जरूरत नहीं समझी।
भरतीय फुटबाल टीम ने 1948, 1952, 1956 और 1960 के ओलयम्पिक खेलों में भाग लिया और 1956 के मेलबोर्न ओलयम्पिक में रिकार्डतोड़ पर्दार्धन करते हुएचौथ स्थान अर्जित किया। 1956 के जीवित ओलम्पियनों में अहमद हुसैन, टी बलरामन, एस बनर्जी, एन नंदी और एस नारायणन सहित कुल पांच खिलाड़ी , जबकि 1960 की टीम के एस हकीम, हामिद, फ्रैंको, अरुण घोष, चंद्र शेखर और सुंदर राजन बदहाली में जी रहे हैं।
कुछ सप्ताह पहले भारतीय टीम के जाने माने खिलाड़ी और कोच रहे नईमुद्दीन केबारे में खबर छपी कि वह तंग हाली में जी रहे हैं। उनकी खबर लेने वाला कोई भी नहीं है। लेकिन नईम से पहले वाले और ओलयम्पिक में देश का नाम रोशन करने वाले खिलाड़ियों की हालत तो और भी ज्यादा खराब है।
चार ओलयम्पिक खेलों में भाग लेने वाले खिलाड़ियों में से मात्र 11 खिलाड़ी जीवित हैं और ज्यादातर गंभीर बीमारी से ग्रस्त हैं। जिन खिलाड़ियों ने दुनिया के टॉप फुटबाल राष्ट्रों को टक्कर दी, कई यादगार मुकाबले जीते और ओलंपिक में चौथे स्थान पर रहे, उन्हें पूरी तरह भुला दिया गया। कोई बीमार है और दवा के लिए पैसे नहीं हैं। किसी को परिवार ने भुला दिया तो किसी को सरकार और फुटबाल फेडरेशन से कोई मदद नहीं मिली।
सीधा सा मतलब है कि अपने स्टार खिलाड़ियों को भुलाने की सजा भुगत रही है भारतीय फुटबाल।