क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
भारतीय एथलेटिक के लिए एक बड़ी खबर यह है कि आदिल सुमारीवाला तीसरी बार एथलेटिक फ़ेडेरेशन के अध्यक्ष नियुक्त हुए हैं। हालाँकि कुछ लोग कह सकते हैं कि यह भी कोई खबर है! यदि किसी भारतीय एथलीट ने कोई विश्व स्तरीय प्रदर्शन किया हो या ओलंपिक पदक जीता होता तो शायद बड़ी खबर हो सकती थी। दुर्भाग्य इस देश का, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए मिल्खा सिंह और पीटी उषा द्वारा ओलंपिक में चौथा स्थान अर्जित करना बड़ी खबर रही हैं।
1960 के रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह ने जब 400 मीटर की दौड़ में चौथा स्थान अर्जित किया तो उन्हें उड़न सिख, कहा गया। 24 साल बाद 1984 के लास एंजेल्स ओलंपिक में पीटी उषा 400 मीटर बाधा दौड़ में चौथा स्थान अर्जित कर उड़न परी कहलाईं| लेकिन 36 साल बाद फिर कभी किसी भारतीय एथलीट ने ऐसा करिश्मा नहीं किया, जिसे लेकर हाय तौबा मचाई जा सके।
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस खेल में अध्यक्ष महोदय कुर्सी थामे रखने का रिकार्ड बनाएँ और खिलाड़ी चारों खाने चित पड़े हों, उसका भला कैसे हो सकता है! सुमारीवाला खुद अच्छे एथलीट रहे हैं। उन्हें अपनी गिरेबान में झाँक कर भी अवश्य देख लेना चाहिए। यह ना भूलें कि जबसे सुरेश कलमाडी गए हैं भारतीय एथलेटिक ने एक कदम भी नहीं बढ़ाया है। उन्हें यह भी जान लेना चाहिए कि सिर्फ़ एशियाई खेलों और कामनवेल्थ खेलों में छुट पुट पदक जीत लेना ही काफ़ी नहीं है!
अधिकांश एथलीटों का मानना है कि कलमाडी के अध्यक्ष रहते खेल के लिए बेहतर माहौल था क्योंकि स्वयं कलमाडी भी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। भले ही कामनवेल्थ खेल घोटाले की गाज उन पर गिरी किंतु वह आज भी ज़्यादातर एथलीटों के पसंदीद है, जबकि सुमरीवाला उनसे कुछ नहीं सीख पाए हैं। यदि वह देश की एथलेटिक का सचमुच भला चाहते हैं तो तीसरे और आख़िरी मौके को एथलेटिक के भले के लिए इस्तेमाल करें। वैसे फिलहाल उनके चयन पर सवाल भी उठ रहे हैं। भले ही उन्होने अंजू बॉबी जार्ज और सुमन रावत को उपाध्यक्ष पद सौंपा है और लता एवम् हाइमा को अपनी टीम में शामिल कर महिलाओं की सहानुभूति अर्जित की है लेकिन उन्हें और भारतीय एथलेटिक को बहुत कुछ साबित करना बाकी है।
ओलंपिक पदक जीतने का दावा करना भारतीय एथलेटिक के लिए एक बड़ा झूठ और घटिया बहाना बन कर रह गया है। इस प्रकार की बातें कलमाडी-भनौट दौर तक ठीक थीं क्योंकि इस जोड़ी के पास बेहतर सोच थी। यदि हिमा दास और दुति चन्द जैसी साधारण एथलीटों को पदक का दावेदार मानते हैं तो बड़ी भूल कर रहे हैं।
बेहतर होगा अध्यक्ष महोदय सबसे पहले उम्र की धोखाधड़ी, नशाखोरी और काबिल कोचों की उपेक्षा पर अंकुश लगाने का प्रयास करें। ओलंपिक पदक तो किसी चमत्कार या तीर तुक्के से ही मिल सकता है। पिछले सौ सालों का भारतीय प्रदर्शन बताता है कि हमारे एथलीटों में दम नहीं है और अधिकारियों के पास किसी ठोस रणनीति का अभाव है।