क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
पिछले पचास सालों में भारतीय खेलों में एक बड़ा बदलाव यह देखने को मिला है कि अब पहले की अपेक्षा खिलाड़ियों को बेहतर सुविधाएँ मिल रही हैं, खेल मैदानों, कोर्ट और स्टेडियमों की शक्ल सूरत बदली है; सरकार, स्कूल और खेल संघ खिलाड़ियों के शिक्षण प्रशिक्षण पर अधिकाधिक खर्च कर रहे हैं। लेकिन यदि कुछ नहीं बदला तो वह शारीरिक शिक्षा का स्तर और शिक्षक का जीवन स्तर।
1970-80 के दसक के शारीरिक शिक्षकों का काम स्कूल की प्रार्थना के लिए खिलाड़ियों को पंक्तिबद्ध करना, स्कूल में साफ सफाई का ध्यान रखना, शरारती छात्र छात्राओं को दंडित करना और खाली पीरियड में एक फुटबाल, वॉलीबॉल या क्रिकेट बैट थमाना होता था। वह तमाम ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करता था फिरभी उसे हिकारत की नज़र से देखा जाता रहा। अन्य शिक्षकों की तुलना में उसे कमतर आंका जाता रहा है।
सच्चाई यह है कि आज भी पीआर टी, टीजीटी और पीजीटी शिक्षक की भूमिका में कोई खास बदलाव नहीं आया है। सही मायने में उन्हें स्कूल में खेलों के लिए माहौल बनाने, खिलाड़ियों को प्रशिक्षण देने और उनके अंदर के खिलाड़ी को खोजने क काम कभी गंभीरता से नही सौंपा गया। यही कारण है कि देश के तमाम खेल तरक्की नहीं कर पा रहे। भले ही सरकारें और भारतीय खेलों की आड़ में दुकाने चलाने वाले कितने भी दावे करें, भारत में खेलों के लिए वातावरण तब तक नहीं बन सकता जब तक सरकारें शारीरिक शिक्षकों, और कोचों को सम्मान का दर्ज़ा नहीं देते।
कोरोना काल में शारीरिक शिक्षकों का सरकारों ने जैसा शोषण किया उसे देखते हुए नहीं लगता कि देश के खेल कर्णधार भारत को खेल महाशक्ति बनाने के लिए धीर गंभीर हैं। देश के लगभग सभी राज्यों में शारीरिक शिक्षकों द्वारा घर घर जाकर कोरोना का सर्वे कराया गया, उन्हें हवाई अड्डों, होटलों आदि में पोस्ट किया गया।
तर्क दिया गया कि शारीरिक शिक्षक शारीरिक तौर पर मज़बूत होते हैं। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन नई दिल्ली नगर पालिका ने उन्हें चलान काटने का जिम्मा सौंप दिया, इस शर्त के साथ कि जो लोग मास्क नहीं पहन रहे उनसे जुर्माना वसूला जाए। कुछ राज्यों में तो उन्हें ट्रैफिक पुलिस का दायत्व भी निभाना पड़ा।
बेशक, महामारी के चलते डाक्टरों, स्वास्थ्य कर्मियों, सफाई कर्मियों, आम कर्मचारियों ने अपना अपना योगदान दिया। उन्हें मान सम्मान भी मिला लेकिन चलान काटने वाले शारीरिक शिक्षकों को गालियाँ सुननी पड़ीं। यही वक्त था जब वे देशवासियों को फिट रहने व्यायाम करने और खेलों में सुधार के बारे में शिक्षा-दीक्षा दे सकते थे। इसके उलट कई शिक्षकों की नौकरियाँ चली गईं। उन्हे स्कूल, कालेज और अन्य संस्थानों ने पूछा तक नहीं।
अर्थात जिन गुरुओं पर देश के खेलों और भावी पीढ़ी को सजाने सँवारने का जिम्मा है उन्हें आज तक यथोचित सम्मान नहीं मिल पाया। फिर भला कैसे मान लें कि अपना देश खेलों में बड़ी ताक़त बनाने जा रहा है। खिलाड़ी की रीड को मजबूत करने वाले शिक्षक उपेक्षित हैं इसीलिए दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र सबसे फिसड्डी बन कर रह गया है।
क्लीन बोल्ड को उन सयानों और ज्ञान बाँटने वालों से भी नाराज़गी है जोकि खेल शिक्षकों – प्रशिक्षकों, सपोर्ट स्टाफ, रेफ़री- अंपायरों को उनका अधिकार तो दिला नहीं सकते, उनकी नौकरियाँ नहीं बचा सकते पर बड़े बड़े उपदेश झाड़ कर सरकारों और खेल मंत्रालय के बड़ों के तलवे चाटते फिर रहे हैं।
शारीरिक शिक्षा के ठेकेदारों और सरकारों के जी हुजुरों को यह जान लेना चाहिए कि देश में अंशकालिक शिक्षकों को चार से आठ दस हज़ार का वेतन दिया जाता है, जब दिल किया उनकी नौकरी छीन ली जाती है। नतीजन कई एक बूट पालिश, ठेला खींचने और मज़दूरी करने जैसे काम करने को मज़बूर हुए हैं। तंगहाली से परेशान कई शिक्षक और कोच आत्महत्या भी कर चुके हैं। ऐसी हालत है तो भारत खेल महाशक्ति कैसे बन पाएगा, कोई बताएगा!
कोरोना काल में हजारों लाखों की नौकरी चली गई लेकिन शारीरिक शिक्षक की कोई सुनवाई नहीं। ऐसे में शारीरिक और मानसिक रूप से फिट खिलाडियों की कैसे उम्मीद करें!
गजब लिखा है सर, बदहाल शारीरिक शिक्षक और देश बनेगा महाशक्ति। खेल को सुधारना है तो जमीनी स्तर पर शारीरिक शिक्षा और शिक्षक के लिए राज्य सरकार को सही कदम उठाने होंगे। क्योंकि शारीरिक शिक्षक ही पहला व्यक्ति होता है जो किसी छात्र के अंदर खेल प्रतिभा को देखकर तरासता है। पर जब वही खिलाड़ी आगे चलकर देश का नाम रोशन करता है तो उसका श्रेय बड़े कोच ले जाते हैं। बेचारे पीटीआई को कोई याद भी नहीं करता है। आज देश को अगर क्रिकेट में धोनी मिला है तो उसका श्रेय उसके शारीरिक शिक्षक बनर्जी सर हैं। पर ऐसे कितने बनर्जी को देश में पहचान मिली है? यह विचारणीय योग्य बात है। आपकी बात से सौ फिसदी सहमत हूं। सजवान स्पोर्ट्स इस तरह बेबाकी से खेल और खिलाड़ियों के बारे में जमीनी स्तर पर लिखकर तथाकथित खेल प्रशासकों को आइना दिखाता रहे यही आशा करता हूं ।