क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
प्राकृतिक प्रकोप की धरती और आम तौर पर बेहद शांत प्रदेश देवभूमि उत्तराखंड में क्रिकेट का बुखार महामारी का रूप धारण कर चुका है। हाल के घटनाक्र्म को देख कर तो यही कहा जा सकता है कि देश का सबसे लोकप्रिय खेल उतराखंड के जनजीवन पर बुरा असर डाल सकता है।
क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ उतराखंड(सी ए यू) के कोच वसीम ज़ाफ़र ने जिन परिस्थितियों में अपने पद से इस्तीफ़ा दिया उसे देखते हुए तो यही लगता है कि क्रिकेट के कारण उत्तराखंड में कभी भी बहुत बुरा घटित हो सकता है। यह हाल तब है जबकि उत्तराखण्ड की क्रिकेट ने अभी चलना भी नहीं सीखा है।
ज़ाफ़र पर टीम को मज़हबी गतिविधियों का दबाव डालने का आरोप लगाया गया है। कहा जा रहा है कि उनके कोच रहते उत्तराखंड मुश्ताक अली ट्राफ़ी के पाँच में से चार मैच हार गई, क्योंकि उन्होने खिलाड़ियों के चयन में धर्म को निशाना बनाया और एक खास धर्म के खिलाड़ियों को तरजीह दी गई।
यह भी सुगबुगाहट है कि सीएयू सचिव महिप वर्मा और मुख्य चयनकर्ता रिज़वान शमशाद से ज़ाफ़र की तनातनी चल रही थी और तंग आकर उन्होने इतीफा दे दिया। लेकिन इतने सब से मामला दबने वाला नहीं है।
उत्तराखंड के कुछ क्रिकेटर और प्रशासनिक अधिकारी कह रहे हैं कि अंदर की लड़ाई ने प्रदेश की क्रिकेट के प्याले में तूफान खड़ा कर दिया है और एक खास संप्रदाय के लोगों को शक की नज़र से देखा जाने लगा है।
हालाँकि सचिव वर्मा अब अपने बयान से पलट रहे हैं और कह रहे हैं कि उन्होने कभी भी कोच पर आरोप नहीं लगाया कि वह किसी धर्म के खिलाड़ियों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं। एक राष्ट्रीय दैनिक ने ज़ाफ़र पर मजहबी माहौल बनाने के गंभीर आरोप लगाए थे जबकि कोच का कहना है कि एसोसिएशन से उन्हें कोई मदद नहीं मिल रही थी।
उनके द्वारा चुने गए खिलाड़ियों को एक एक कर टीम से बाहर किया गया और जब इस बारे में पूछा गया तो उलट आरोप लगाया गया कि कोच टीम का चयन सांप्रदाइक आधार पर कर रहा है।
उधर वर्मा कह रहे हैं कि प्रदेश की क्रिकेट में जाति और धर्म जैसे भेदभाव जैसी कोई बात नहीं है और ना ही ज़ाफ़र पर किसी प्रकार का कोई अंकुश लगाया गया है। टीम के चयन में किसी भी अधिकारी का कोई हस्तग्क्षेप नहीं है।
लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि बिना आग लगे धुँआ कैसे उठ रहा है। कहीं ना कहीं कोई गड़बड़ तो है। ऐसा कुछ तो है जिसके चलते उत्तराखंड की क्रिकेट में तूफान उठा है। ऐसा तब हो रहा है जबकि प्रदेश की क्रिकेट शैशवास्था में है। अर्थात सीधे सीधे भ्रूण हत्त्या का मामला बनता है।
भारत के लिए 31 टेस्ट मैच खेलने वाले और सबसे ज़्यादा रणजी ट्राफ़ी रन बनाने वाले ज़ाफ़र कभी भी विवादास्पद नहीं रहे। यही कारण है कि अनिल कुंबले की पहल के साथ कई पूर्व खिलाड़ी उनके पक्ष में उतर आए हैं। मुंबई के कई टीम साथी उनके पक्ष में बयान दे रहे हैं और उन लोगों को खरी खरी सुना रहे हैं जिन्होने ज़ाफ़र को धार्मिक उन्माद फैलाने का कुसूरवार बताया है।
बेशक, अपनी किस्म का यह पहला मामला है जब क्रिकेट या किसी भी खेल में धर्म आड़े आया हो। यह न भूलें कि भारतीय क्रिकेट में हिन्दू-मुस्लिम खिलाड़ी हमेशा से भाई चारे के साथ एक साथ खेल रहे हैं। भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने भी कभी किसी प्रकार का पक्षपात नहीं किया।
उत्तराखण्ड में जो कुछ चल रहा है, खेल के लिए शुभ संकेत कदापि नहीं है। बेहतर होगा बीसीसीआई मामले को गंभीरता से ले और कुसुरवारों को कड़ी सजा दे। फिर चाहे कोच, खिलाड़ी या सी ए यू अधिकारी कोई भी दोषी क्यों न हों। बीमारी का शुरू में ही इलाज नहीं किया गया तो क्रिकेट का असर प्रदेश की सुख शांति और पवित्रता पर पड़ सकता है।