June 16, 2025

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नशाखोरी भारतीय खेलों का अभिशाप , बढ़ सकते हैं डोप मामले!

Doping Issues in Indian cases

क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान

खेल जगत कोरोना महामारी की दवा के लिए दुआ कर रहा है ताकि खिलाड़ी फिर से खेल मैदानों में उतर सकें और रिकार्ड तोड़ प्रदर्शन से अपना और देश का नाम रोशन कर सकें। स्थगित टोक्यो ओलंपिक सभी के लिए कोरोना काल के बाद की पहली और सबसे बड़ी चुनौती होगा। 

ओलंपिक खेलों के परिणामों से ही पता चलेगा कि किस देश के किन किन खिलाड़ियों ने कैसी तैयारी की है। लेकिन खेल वैज्ञानिकों और डाक्टरों को एक डर सता रहा है कि टोक्यो ओलंपिक में  नाशखोरी के तमाम रिकार्ड टूट सकते हैं। 

ऐसी आशंका इसलिए व्यक्त की जा रही है क्योंकि पिछले आठ दस महीनों से जहाँ एक तरफ वर्ल्ड एंटी डोप एजेंसी(वाडा) कोविड-19 के चलते ज़्यादा हरकत में नहीं है तो उसकी सदस्य और राष्ट्रीय इकाइयाँ भी खिलाड़ियों की खोज खबर नहीं ले पा रही हैं। 

भारतीय एजेंसी नाडा का काम काज तो ठप्प पड़ा है क्योकि नाडा लैब का पंजीकरण रद्द किया जा चुका है। ज़ाहिर है ओलंपिक टिकट पाने और प्रदर्शन में सुधार के लिए आम भारतीय खिलाड़ी किसी भी हद तक जा सकता है। तैयारी शिविरों में खिलाड़ी क्या खा रहे हैं, कैसी खुराक ले रहे हैं और विदेशी कोच उनका कैसा मार्गदर्शन कर रहे हैं जैसी महत्वपूर्ण बातों की तरफ ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है।

 हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय खिलाड़ी नाशखोरी के लिए ख़ासे बदनाम हैं और तमाम हदें पार कर सकते हैं। कारण, उन्हें अपनी योग्यता और क्षमता के बारे में पता है और यह भी जानते हैं कि बिना कुछ खाए पिए अग्रणी खेल राष्ट्रों का मुकाबला नहीं कर सकते। कोरोना के नाम पर प्रतिबंधित दवाएँ भी ले सकते हैं और पकड़े जाने पर वही पुराना बहाना बना सकते हैं।

1988 के स्योल ओलंपिक में जब कनाडा के धावक बेन जानसन ने १०० मीटर की फर्राटा दौड़ जीती तो कुछ समय के लिए एथलेटिक जगत सन्न रह गया था और कनाडा में खुशी की लहर दौड़ गई थी। हालाँकि जानसन डोप में धरे गए लेकिन तब एक भारतीय कोच ने चुटकी लेते हुए कहा था कि काश कोई भारतीय धावक ऐसा कर पता।  कुछ समय के लिए ही सही हमें भी सुकून मिल जाता। 

कोच का यह विवादास्पद बयान भले आफ रिकार्ड था लेकिन आप उसकी पीड़ा और भारतीय खिलाड़ियों के दयनीय प्रदर्शन का अनुमान लगा सकते हैं। सालों से भारतीय एथलीट और खिलाड़ी ओलंपिक में भाग ले रहे हैं लेकिन 1988 तक एक भी खिलाड़ी ओलंपिक में व्यक्तिगत स्वर्ण पदक नहीं जीत पाया था।

संभवतया इसी झल्लाहट में कोच साहब अपना गुस्सा दिखा रहे थे। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि भारतीय खिलाड़ी और कोच दूध के धुले हैं और ग़लत तरीके अपनाकर पदक जीतने से परहेज करते हैं। 

यदि एसा होता तो भारत उन देशों की लिस्ट में टाप पर क्यों होता,जिसके खिलाड़ी बार बार और लगातार डोप में धरे जा रहे हैं और प्रतिबंधित दवाओं के सेवन में लगातार रिकार्ड कायम कर रहे हैं। 

अर्थात हमारे खिलाड़ी सालों से प्रतिबंधित दवाएँ ले रहे हैं फिरभी कामयाब नहीं हो पाते। इस प्रकार भारतीय खेलों को दोहरी मार सहनी पड़ रही है। एक तो पदक नहीं जीत पाने का अपयश और दूसरे डोप में पकड़े जाने और सज़ा पाने पर थू थू हो रही है|

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