क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
जब कभी भारतीय फुटबाल की दयनीय हालत की बात चलती है तो देश के तथाकथित फुटबाल एक्सपर्ट्स कोचिंग सिस्टम को कोसते हैं। कभी कभार फुटबाल फ़ेडेरेशन को भी बुरा भला कहने का साहस दिखाते हैं।
लेकिन समस्या की असली वजह के बारे में कोई भी बात नहीं करना चाहता। कोई भी यह जानने का प्रयास नहीं करता कि भारतीय फुटबाल से मुस्लिम खिलाड़ी क्यों लुप्त होते जा रहे हैं, जबकि भारतीय फुटबाल को उँचाइयाँ प्रदान करने में उनका योगदान बढ़ चढ़ कर रहा है।
(ईद के पावन अवसर पर सभी मुस्लिम मित्रों, खिलाड़ियों, कोचों और अन्य हस्तियों को हार्दिक बधाई। बेशक, महामारी के चलते ईद फीकी लग रही है लेकिन अच्छा वक्त भी जल्द आएगा)।
उस दौर में जबकि भारतीय फुटबाल अपने पूरे उफान पर थी और विश्व एवम् ओलम्पिक स्तर पर हमें सम्मान प्राप्त था, भारतीय फुटबाल का शिखर पुरुष और कोई नहीं एक सच्चा और समर्पित मुसलमान था, जिसके गुरुत्व गुणों से भारत ने दो एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक जीते और ओलम्पिक में गजब का प्रदर्शन किया।
1951 और 1962 के एशियाई खेलों में भारत के लिए जिस टीम ने महाद्वीप का विजेता होने का गौरव पाया उसके कोच रहीम साहब थे, टीम खेलों में वह भारत के सर्वकलीन श्रेष्ठ कोच आँके जाते हैं। उनके पुत्र एस एस हकीम जाने माने कोच और ओलम्पियन रहे हैं। हकीम मानते हैं कि ना सिर्फ़ राष्ट्रीय टीम में अपितु राज्य स्तर पर भी मुस्लिम खिलाड़ी लगातार घट रहे हैं।
पूर्व चैम्पियनों पर नज़र डालें तो सैयद अज़ीज़ुद्दीन, अब्दुल लतीफ, नूर मोहम्मद, अहमद ख़ान, अब्दुल रहीम, यूसुफ ख़ान, एसएस हकीम, एस हामिद और दर्जनों अन्य मुस्लिम खिलाड़ियों ने अंतरराष्ट्रीय फुटबाल में भारत की शान बढ़ाई।
आंध्रा प्रदेश, बंगाल, और दक्षिण भारत के अन्य प्रदेशों के कई खिलाड़ी पीके बनर्जी, चुन्नी गोस्वामी, मेवालाल, अरुण घोष, जरनैल सिंह, बलराम और अन्य के साथ जम कर खेले और भारतीय फुटबाल का मान बढ़ाने में बढ़ चढ़ कर योगदान दिया।
ऐसा नहीं है कि मुस्लिम खिलाड़ियों ने फुटबाल खेलना छोड़ दिया है या उनके साथ फुटबाल मैदान में किसी प्रकार का सौतेला व्यवहार हो रहा है। दिल्ली की फुटबाल के उदाहरण के साथ जानने का प्रयास करते हैं, क्योंकि दिल्ली के दस टाप क्लबों में कभी मुस्लिम खिलाड़ियों की बहुतायत थी।
उनके साथ बंगाली और उत्तराखंडी मूल के गढ़वाली खिलाड़ियों ने सालों साल राजधानी की फुटबाल में दबदबा कायम किया। लेकिन दिल्ली की फुटबाल अब दिल्ली की रही ही नहीं। अधिकांश क्लब पंजाब, हरियाणा, यूपी और बंगाल के आधे अधूरे खिलाड़ियों के दम पर चल रहे हैं। बाकी की कसर नाइजीरिया और कुछ अन्य देशों के खिलाड़ी पूरी कर रहे हैं।
बाहरी और विदेशी खिलाड़ी भी ऐसे हैं जिन्होने फुटबॉल का पहला पाठ भी ठीक से नहीं पढ़ा है। कभी दिल्ली की शान रहे मुस्लिम खिलाड़ी लगभग गायब हो चुके हैं। यही हाल राष्ट्रीय टीम का भी है। राष्ट्रीय टीम में आंध्र, कर्नाटक, बंगाल,यूपी और अन्य प्रदेशों के मुस्लिम खिलाड़ी कम ही नजर आते हैं।
ज़्यादा वक्त नहीं हुआ है जब मुगल्स,सिटी,यंगमैंन, नेशनल्स, यंग्स्टर, मूनलाइट आदि क्लब मुस्लिम खिलाड़ियों के खेल कौशल से चमचमाते थे। शिमलायंग्स, एंडी हीरोज, गढ़वाल हीरोज और कुछ अन्य क्लब भी मुस्लिम खिलाड़ियों की सेवाएँ लेने मे पीछे नहीं रहे। गढ़वाली-कुमाऊनी,और बंगाली खिलाड़ी भी खूब खेले।
दिल्ली की फुटबॉल मे पैठ रखने वाले हिंदू-मुस्लिम क्ल्ब अधिकारी एक राय से मानते हैं क़ि मुस्लिम खिलाड़ियों का सिरे से गायब होना स्थानीय फुटबॉल के लिए बड़ा आघात है। इसी प्रकार भारतीय फुटबॉल को भी उनकी कमी खल रही है।
लेकिन फुटबॉल फेडरेशन हो या डीएसए सहित उसकी तमाम इकाइयाँ, किसी को भी इस ओर ध्यान देने की फ़ुर्सत नहीं है। कम से कम मुस्लिम समाज,अभिभावक,पूर्व खिलाड़ी और क्लब अधिकारी तो नींद से जागें|यह तय है क़ि मुसलमानों के बिना दिल्ली ,देश और विश्व की फुटबॉल की कल्पना नहीं की जा सकती।