राजेंद्र सजवान/क्लीन बोल्ड
जिस दिल्ली को कभी अपने खिलाडियों पर नाज़ था वह दिल्ली आज नजर नहीं आती, ऐसा खुद देश की राजधानी के पूर्व खिलाडियों, फुटबाल प्रेमियों और दिल्ली के क्लब अधिकारियों का मानना है।
यह सही है कि फुटबाल भी अब अन्य खेलों कि तरह पेशेवर हो गई है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि दिल्ली की फुटबाल से उसके अपने खिलाड़ी गायब हो जाएं। भले ही खेल के स्तर में गिरावट आई है लेकिन खेल का व्यवसायीकरण दिल्ली और देश कि फुटबाल को रास नहीं आ रहा, जोकि शुभलक्षण कदापि नहीं है।
जहां तक भारतीय फुटबाल की बात है तो देश के छोटे बड़े टूर्नामेंटों की हत्यारी फेडरेशन ने आईएसएल और आईलीग जैसे बेमतलब आयोजनों को शह देकर क्लब फुटबाल के ढाँचे को बेहद कमजोर कर डाला है।
यह सही है कि एआईएफएफ की योजना भारतीय फुटबाल को यूरोपीय पैटर्न पर चलाने की रही होगी लेकिन भारतीय फुटबाल के कर्णधारों ने समझदारी से काम नहीं लिया। नतीजा यह रहा कि भारतीय फुटबाल का ढांचा पूरी तरह चरमरा गया है।
दिल्ली और देश के अन्य प्रदेशों की फुटबाल का सबसे मज़बूत पहलू स्थानीय लीग और संतोष ट्राफी राष्ट्रीय चैम्पियनशिप रही हैं, जोकि अब दम तोड़ने की कगार पर हैं। बीसवीं सदी के अंतिम चार दसकों तक संतोष ट्राफी राष्ट्रीय चैम्पियनशिप का बखूबी आयोजन किया गया।
इन आयोजनों से निकल कर अनेक खिलाडियों ने देश की फुटबाल में नाम कमाया लेकिन आज न तो संतोष ट्राफी की कोई हैसियत रही है और ज्यादातर राज्यों में लीग फुटबाल का आयोजन भी नहीं जाता किया जाता है। लेकिन दिल्ली उन चंद राज्यों में से है जोकि कोलकाता, केरल और गोवा की तरह लीग का नियमित आयोजन कर रही है। यह बात अलग है कि डीएसए लीग में दिल्ली के अपने खिलाडी कहीं नजर नहीं आते।
भले ही दिल्ली के क्लब भी पेशेवर फुटबाल का गीदड़ पट्टा पहनकर अकड़ दिखा रहे हैं लेकिन उनके पास अपने खिलाडियों की भारी कमी है। यह हाल तब है जबकि दिल्ली और उसके आस पास के राज्यों में अनेक फुटबाल अकादमियां खुली हैं जोकि बेहतर खिलाडियों की फसल तैयार करने का दावा करती हैं।
सवाल यह पैदा होता है कि स्थानीय क्लबों को हरयाणा, पंजाब, यूपी, उत्तराखंड, राजस्थान और बंगाल के खिलाडियों की सेवाएं क्यों लेनी पड़ रही हैं? अफ़सोस कि बात यह है कि ज्यादातर बड़े क्लब दौड़ में बने रहने के लिए अन्य से पर्तिस्पर्धा तो करते हैं लेकिन स्तरीय खिलाडियों को खरीदने के लिए उनके पास पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हो पाते। दो चार को छोड़ बाकी क्लब बस जैसे तैसे चल रहे हैं।
फुटबाल दिल्ली के चुनावों के बाद नया सत्र शुरू होने जा रहा है। जीते हारे कोई भी लेकिन डीएसए यदि सचमुच फुटबाल का भला चाहती है तो उसे अपने स्थानीय क्लबों की माली हालत सुधारने और दिल्ली में चल रही अकादमियों के स्तर का आकलन जरूर कर लेना चाहिए।
यदि स्थानीय खिलाडियों को अपने क्लबों में स्थान नहीं मिल पाता तो मामला गंभी है। या तो खिलाडियों का स्तर गिर रहा है या बाहरी दलाल दिल्ली की फ़ुटबाल पर हावी हैं। सम्भवतया ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि दिल्ली के स्कूल कालेजों से अच्छे खिलाडी नहीं निकल रहे।
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