क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
इसमें दो राय नहीं कि ध्यान चन्द विश्व हॉकी में सबसे श्रेष्ठ खिलाड़ी थे । यह भी सच हैकि उनके सुपुत्र अशोक कुमार ध्यान चन्द भी अपने यशस्वी पिता की तरह खेल कौशल के धनी रहे। भलेही पिता की तरह पुत्र ने कोई ओलंपिक स्वर्ण नहीं जीता लेकिन अशोक कुमार उस भारतीय टीम के श्रेष्ठ खिलाड़ी थे जिसने पहली और अब तक की एकमात्र विश्व कप ख़िताबी जीत दर्ज कर देश की हॉकी का गौरव बढ़ाया था। तब हॉकी एक्सपर्ट्स और पूर्व चैम्पियनों ने एकमत से कहा था कि अशोक में अपने पिता की चैम्पियन वाली छवि साफ नज़र आती है|
महान पिता का पुत्र होना गर्व की बात है लेकिन जब बेटे से पिता जैसे चमत्कार करने की अपेक्षा की जाने लगे तो एसी स्थिति का सामना करना आसान नहीं होता। जहाँ तक अशोक की बात है तो उन्होने हमेशा अपना श्रेष्ठ दिया फिर चाहे देश के लिए खेल रहे हों या अपने विभाग इंडियन एयर लाइन्स के लिए, उनके खेल को हॉकी प्रेमियों का जमकर समर्थन मिला।
ध्यान चन्द गोल जमाने में माहिर खिलाड़ी रहे तो अशोक के पास पिता जैसी स्किल भरी पड़ी थी। ख़ासकर उनकी ड्रिब्बलिंग का हर कोई दीवाना था। एक बार गेंद मिली तो उनसे छीन पाना विरोधी खिलाड़ियों के लिए मुश्किल हो जाता था। पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया, हॉलैंड, जर्मनी, इंग्लैंड आदि देशों के रक्षकों को उन्होने जमकर नचाया और ज़रूरत पड़ने पर दर्शनीय गोल भी जमाए। लेकिन वह उस दौर के कलाकार थे जब भारतीय हॉकी अपने शिखर से तेज़ी से नीचे रपट रही थी। नतीजन 1972 और 1976 के ओलंपिक खेलों में देश को खोया सम्मान नहीं मिल पाया।
अपने समकालीन खिलाड़ियों अजितपाल, असलम शेर ख़ान, सुरजीत सिंह, गोविंदा, फ़िलिप्स, माइकल किंडो के बीच अशोक बड़ा नाम रहे। लेकिन हैरानी वाली बात यह है कि उन्हें इस देश की सरकारों ने कभी भी पद्श्री के काबिल नहीं समझा। देर से ही सही लेकिन अब कुछ कुछ समझ आ रहा है कि आख़िर क्यों हॉकी के जादूगर मेजर ध्यान चन्द को भारत रत्न नहीं मिल पाया।
जब विश्व कप विजेता भारतीय हॉकी टीम के स्टार खिलाड़ी और दद्दा ध्यान चन्द के सुपुत्र अशोक कुमार को पद्मश्री के काबिल नहीं समझा गया तो यशस्वी पिता की अनदेखी का कारण भी सहजता से समझा जा सकता है।
ध्यान चन्द को भले ही सबसे बड़ा राष्ट्रीय सम्मान नहीं मिला लेकिन पूरा देश जानता है कि जिस प्रकार महात्मा गाँधी भारत की पहचान बने उसी प्रकार आज़ादी पूर्व के तीन ओलंपिक गोल्ड मेडल ने दद्दा और देश को अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर सम्मान दिलाया। उनके नाम पर राष्ट्रीय खेल दिवस मनाया जाता है, स्टेडियम का नामकरण किया जाता है और बड़ी बड़ी खेल योजनाएँ एवम् अवार्डो का नामकरण किया जाता है लेकिन उन्हें भारत रत्न ना देने की विवशता समझ नहीं आती।
ऐसा नहीं है कि देश की सरकारों को ध्यानचन्द परिवार से किसी तरह की नाराज़गी रही है या कहीं कोई गंदी राजनीति की जा रही हो। इस बारे में जब अशोक ध्यान चन्द से पूछा गया तो हमेशा की तरह उन्होने जवाब दिया ‘अपने पिता के लिए सम्मान माँगते मुझे अच्छा नहीं लगता और ना ही कभी कोई प्रयास किया। लेकिन जब आप जैसे पत्रकार मित्र पूछते हैं तो मैं कह देता हूँ कि इसका जवाब सरकार ही दे सकती है’।
अशोक से जब पद्मश्री सम्मान नहीं मिल पाने के बारे में पूछा गया तो उन्होने कहा, ‘आपको बता दूं कि मैं अपने पिता की तरह देशभक्त और अनुशासित खिलाड़ी रहा हूँ। मैने कोई अपराध नहीं किया और ना ही मैदान और मैदान के बाहर किसी विवाद से जुड़ा रहा हूँ। हाँ, मेरी ग़लती यह है कि मैने कभी पद्मश्री के लिए आवेदन नहीं किया। तीन विश्व कप खेले और क्रमशः ब्रांज, सिल्वर और गोल्ड जीते। म्यूनिख ओलंपिक में पदक नहीं जीत पाए लेकिन तीन एशियाई खेलों में तीन सिल्वर मेडल मेरे खाते में हैं इतना कुछ पाने के बाद भी मैं पद्मश्री माँगने से डरता हूँ। कारण, यदि माँगने पर भी सम्मान नहीं मिला तो मैं सह नहीं पाऊंगा। इससे बड़ा अपमान क्या होगा।
1975 में जिस भारतीय टीम ने अजित पाल की कप्तानी में विश्व कप जीता था अशोक उस टीम के स्टार खिलाड़ी थे। उनके खेल के चर्चे आम थे। कोई उन्हें मैच विजेता कहता था तो हॉकी की गहरी समझ रखने वाले उन्हें ड्रिब्बलिंग का शहँशाह कह कर बुलाते थे। बेशक, वह देश के सबसे लोकप्रिय खिलाड़ियों में से रहे लेकिन फिर भी उन्हें तमाम उपलब्धियों के चलते पद्मश्री माँगनी पड़े तो दोष उनका नहीं सिस्टम का है। अशोक कहते हैं कि उन्होने यह सोच कर आवेदन नहीं किया कि अगर उनकी प्रार्थना अस्वीकार हुई तो खुद से भी आँख नहीं मिला पाएँगे।