क्लीन बोल्ड /राजेंद्र सजवान
हाल ही में भारत ने ओलंपिक भागीदारी के सौ साल पूरे कर लिए हैं। इतना लंबा समय किसे भी संस्था के जीवनकाल में ख़ासा महत्व रखता है लेकिन इन सौ सालों में हमने क्या पाया और ओलंपिक में हम कहाँ खड़े हैं, यह सवाल हम भारतीय यदि अपनी अंतरआत्मा से पूछें तो जवाब मिलेगा जहाँ से शुरू किया उससे ज़्यादा दूर नहीं गए हैं।
भले ही आज की परिस्थितियों में चीन का उल्लेख ठीक नहीं है लेकिन दुनियाँ की दो सबसे बड़ी आबादी वाले देशों के बीच हमेशा से प्रतिस्पर्धा जैसी स्थिति बनी रही है। जनसंख्या के मामले में हम चीन को पीछे छोड़ने वाले हैं लेकिन खेलों में चीन हमसे सौ साल आगे निकल गया है।
हालाँकि भारत ने आधिकारिक तौर पर 1920 में ओलंपिक खेलों में भाग लिया था लेकिन 1900 के पेरिस ओलंपिक में नॉर्मन पिचार्ड ने ब्रिटिश शासन के नुमाइंदे के बतौर 200 और 200 मीटर बाधा दौड़ में रजत पदक जीते थे।
इस प्रदर्शन की बराबरी आज तक कोई भी भारतीय खिलाड़ी नहीं कर पाया है। पहलवान सुशील कुमार क नाम एक एक रजत और कांस्य पदक हैं। एक मात्र स्वर्ण निशानेबाज़ अभिनव बिंद्रा जीत पाए हैं।
कुल भारतीय प्रदर्शन की बात करें तो हमारे खिलाड़ी रियो ओलंपिक 2016 तक मात्र 28 पदक जीत पाए हैं जिनमे आठ हॉकी स्वर्ण शामिल हैं। रियो में सिंधु के रजत और साक्षी के कांस्य ने भारत की लाज़ बचाई। यह लंबा सफ़र बताता है कि खेलों में भारत आज भी वहीं खड़ा है जहाँ से खेल महाशक्ति बनने की कोई सूरत नज़र नहीं आती।
हालाँकि कुछ लोगों को यह सुनना मंजूर नहीं होगा कि चीन खेलों में हमसे सैकड़ों हज़ारों मील आगे बढ़ निकला है। उसकी तरक्की को शक की नज़र से ज़रूर देखा जाता है पर लगातार आरोपों के बावजूद वह और ताकतवर हुआ हैऔर इस दौड़ में अमेरिका को भी पीछे छोड़ने का दम रखता है।
उसने 1952 में पहली बार हेलसिंकी समर ओलंपिक में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। लेकिन असल भागीदारी 1984 के लासएंजेल्स खेलों से शुरू हुई। अमेरिकी दबदबे के चलते चीन को रफ़्तार पकड़ने में समय लगा लेकिन ओलंपिक दर ओलंपिक चीन कामयाबी के नये आयाम स्थापित करता चला गया।
और 2008 में अपनी मेजबानी में उसने अमेरिका के 36 स्वर्ण पदकों के मुक़ाबले 48 स्वर्ण और कुल सौ पदक जीत कर अपना दम खम दिखा दिया। हालाँकि कुल पदकों में अमेरिका आगे रहा लेकिन शीर्ष पर चीन स्थापित हुआ। उसके खाते में दस ओलंपिक खेलों के 237 स्वर्ण, 195 रजत और 176 कांस्य सहित कुल 608 पदक हैं। यह प्रदर्शन उसे आदमकद बनाता है।
रियो ओलंपिक में भारत के दयनीय प्रदर्शन का चीनी मीडिया ने जम कर उपहास उडाया था। देश में खेलों की बदहाली को लेकर भारतीय मीडिया ने अपने खेल आकाओं के विरुद्ध आक्रामक रुख़ अपना लिया तो चीनी मीडिया को भी भड़ास मिटाने का मौका मिल गया।
चीनी पत्रकारों ने भारत में स्पोर्ट्स कल्चर की कमी, कुपोषण, जात पाँत के झगड़ों और खेल संघों के भ्रष्टाचार को भी प्रगति में बाधक बताया बताया। बुनियादी सुविधाओं की कमी, खराब स्वास्थ्य, युवाओं का डाक्टर-इंजीनियर बनाने पर ज़्यादा ज़ोर, लड़कियों को खेलने की इजाज़त ना होना जैसे आरोप भी भारतीय व्यवस्था पर लगाए।
अब भला भारतीय मीडिया क्यों चुप बैठने वाला था| बीजिंग और रियो ओलंपिक से हमारे महान पत्रकारों और खेल जानकारों ने चीन की तैयारियों और खेल के प्रति उसके नज़रिए को जमकर कोसा। उस पर दो-चार साल के बच्चों को स्वीमिंग पूल में डुबोने, जिमनास्तिक और मार्शल आर्ट्स खेलों में पाशविक व्यवहार करने और बच्चों को अमानवीय तरीकों से सज़ा देने के गंभीर आरोप लगाए गये।
भारत के कई समाजसेवी संगठनों और मानवाधिकार के ठेकेदारों ने भी ड्रैगन की क्रूरता को जमकर कोसा। लेकिन भारत में मीडिया का एक ऐसा वर्ग भी है जिसने चीन जैसी खेल प्रणाली को अपनाने पर जोर दिया। सवाल यह पैदा होता है कि यदि दुश्मन से भी कोई सबक सीखा जा सकता है तो बुराई क्या है! यह ना भूलें कि जिस उम्र में चीन के तैराक, डाइवर और जिमनास्ट रिटायरमेंट ले रहे होते हैं, भारतीय खिलाड़ी पहला सबक भी नहीं सीख पाते।
कोई माने या ना माने लेकिन चीनी मीडिया का यह कहना कि भारतीय खेलों का पिछड़ने का बड़ा कारण क्रिकेट का अत्यधिक प्रचार प्रसार है, कदापि ग़लत नहीं है। यह सही है कि देश के अधिकांश बच्चे क्रिकेट खिलाड़ी बनना चाहते हैं।
बाकी खेलों में बचे खुचे या कुछ खास प्रतिभाएँ ही भाग ले पाती हैं। खुद भारतीय मीडिया और खेलों की गहरी समझ रखने वाले भी जब तब क्रिकेट की अधिकता को ओलंपिक खेलों के लए बाधक मानते रहे हैं। कुल मिला कर चीन और भारत के बीच खेलों को लेकर बड़ा अंतर है। हमें यह स्वीकारना पड़ेगा कि यदि भारत को इस मोर्चे पर बड़ी सफलता पानी है तो चीन या अमेरिका जैसी राह पकड़नी होगी। खेल महाशक्ति तब ही बन पाएंगे।