क्लीन बोल्ड/राजेंद्र सजवान
भारतीय मूल के अमेरिकी टेनिस खिलाड़ी समीर बनर्जी ने जूनियर विम्बलडन जीत कर भारतीय मीडिया को अच्छा खासा मशाला दे दिया है। भले ही अमेरिका में समीर की जीत पर अमेरिकी प्रचार माध्यमों ने भारत जैसे हुड़दंग न मचाया हो और इसकी जीत को शालीनता से लिया हो लेकिन इधर भारत में अलग अलग अंदाज सेउसकी कामयाबी का बखान हो रहा है।
उसके पिता, दादा, नाना, माता और दूर दराज के रिशों की जांच पड़ताल शुरू हो गई है। अमेरिका के एक साथी पत्रकार ने बातचीत के चलते बताया कि समीर को वह करीब से जानता है और उसे उतनी ही कवरेज दी जा रही है जितने का हकदार बनता है। लेकिन भारत में सोशल मीडिया और अन्य प्रचार माध्यमों ने उसे सुपर स्टार बन कर रख दिया है। ऐसा क्यों?
दरअसल, भारत वह महान देश है जोकि सारा जहां हमारा वाले सिध्दांत मानता आया है। यही कारण है कि जब कोई भारतीय मूल का अंतरिक्ष यात्री चांद पर जाता है , किसी डॉक्टर, मनोवैज्ञानिक, समाजसेवी और किसी अन्य महान विभूति को नोबल या अन्य कोई बड़ा पुरस्कार मिलता है तो हमारे खोजी उसके भारत के साथ संबंधों की जोड़ तोड़ में जुट जाते हैं। तारीफ की बात यह है किणेक अवसरों पर सम्मानित हस्तियां यहां तक कह देती हैं कि भारत से उनका कोई लेना देना नहीं है।
इसमें दो राय नहीं कि कल्पना चावला की तरह समीर के परिजनों का संबंध भारत से रहा है लेकिन हमें चैंपियनों के साथ संबंध खोजने की बीमारी क्यों है? शायद इसलिए क्योंकि हम चैंपियन पैदा करने वाला देश नहीं बन पाए। हमारे डॉक्टर और इंजीनियर विदेशों में मां सम्मान काम रहे हैं पर खिलाड़ी ऐसा क्यों नहीं कर पा रहे?
भारतीय खेलों की हालत यह है कि कई अवसरों पर हमारे फुटबाल फेडरेशन के आका तांग आकर और लगातार फजीहत के चलते यहां तक सोच बैठते हैं कि भारतीय मूल के विदेशी खिलाड़ियों को भारत के लिए खेलने को आमंत्रित किया जाए। अमेरिका में रह रहा एक थ्रोवर कई साल तक भारतीय एथलेटिक को गुमराह करता रहा। उस पर भारत सरकार ने करोड़ों खर्च किए पर नतीजा वही जीरो। चार ओलंम्पिक खेलकर भी कुछ नहीं कर पाया।
जहां तक टेनिस की बात है तो रामनाथन कृष्णन और लिएंडर पेस जैसे जुझारू खिलाड़ी भी जूनियर वर्ग से निकल कर चैंपियन बने। कुछ और खिलाड़ी भी जूनियर ग्रैंड स्लैम में सफल रहे। लेकिन सीनियर में उनका प्रदर्शन इसलिए फीका पड़ गया क्योंकि भारतीय टेनिस उनको बेहतर सरंक्षण नहीं दे पाई। रामनाथन कृष्णन, विजय अमृतराज, रमेश और लिएंडर के बाद हालात बद से बदतर हैं।
एकभी भारतीय खिलाड़ी ऐसा नहीं है जोकि किसी ग्रैंड स्लैम जैसे आयोजन या डेविस कप में देश का नाम रोशन कर सके। आने वाले अनेकों सालों तक भी कोई उम्मीद नजर नहीं आती। तो फिर गम गलत करने के लिए समीर का सहारा ही सही। ख्याल अच्छा है ग़ालिब…..। हैरानी वाली बात यह है कि जिस मीडिया को टेनिस के ठेकेदारों को आड़े हाथों लेना चाहिए था वह एक अमेरिकी चैंपियन की तीमारदारी में लगा है!