क्लीन बोल्ड /राजेंद्र सजवान
देर से ही सही, कांस्य पदक ही सही, लेकिन भारतीय हॉकी ने जिस अंदाज में वापसी की है उसका हर हॉकी प्रेमी मुरीद हो गया है। 41 साल कम वक्त नहीं होता। एक पीढ़ी खप जाती है। जी हां, इस अवधि में भारतीय हॉकी ने ध्यानचंद और बलबीर सिंह जैसी पीढ़ियों की कमाई को बर्बाद कर दिया था।
1964 में यहीं टोक्यो में भारत ने अपना सातवां खरे सोने का पदक।जीता था। भले ही भारत 1980 के मास्को ओलंम्पिक में चैंपियन बना था लेकिन तब की जीत अगर मगर में चली गई। यहां तक कह गया कि विश्व हॉकी की पांच टाप टीमों की गैर मौजूदगी में मिले सोने के पदक को खरा नहीं माना जा सकता।
उसी टोक्यो में भारत ने 57 साल बाद कांस्य पदक जीता है लेकिन भारतीय हॉकी प्रेमी कह रहे हैं कि हॉकी का कांसा सोने जैसा सुकून दे रहा है। कहा तो यह भी जा रहा था कि पुरुष और महिला टीमें भले ही कोई पदक न जीत पाएं लेकिन खिलाड़ियों ने देशवासियों का दिल पहले ही जीत लिया है। ऐसा कैसे हो पाया और कैसे ऑस्ट्रेलिया के हाथों रौंदी गई टीम के तेवर बदले, हॉकी जगत ने इस बदलाव को देखा और सराहा।
बेशक, जीत और पदक खिलाड़ियों, कोच, सपोर्ट स्टाफ की कड़ी मेहनत का फल है। दृढ़ निश्चय और राष्ट्रीय भावना ने खिलाड़ियों को चैंपियनों की तरह खेलने के लिए आंदोलित किया। देशवासियों और हॉकी प्रेमियों की भावना और दुवाओंने भी असर दिखाया है। थोड़ी देर के लिए पदक के रंग को भूल जाएं तो हमारी टीम ऐसे खेली मानों कि टोक्यो से पदक जीत लाने का संकल्प कर गई हो।
जीत का श्रेय किसे दिया जाए और किसे छोड़ा जाए,कहना मुश्किल है। सरकारें, खेल मंत्रालय, साई और हॉकी इंडिया हमेशा से अपना रोल प्ले करते आ रहे है। कई बार भाग्य ने भी साथ नहीं दिया लेकिन इस बार भाग्य बहादुरों के साथ हो लिया और भारत को वो जीत मिल गई जिसका सबको इंतजार था।
लेकिन इस जीत की कहानी टीम भावना के पन्ने पर लिखी गई है। शुरू से आखिर तक सभी खिलाड़ी एक परिवार नजर आए। हर मूव पर एक साथ चले, गलती करने पर किसी को दोष नहीं दिया तो खुशी के पल एक परिवार की तरह शेयर किए। लेकिन गोल कीपर श्रीजेश का उल्लेख किए बिना भारत का कांस्य पदक सोने से फीका नजर आएगा। सबसे अनुभवी और सबसे भरोसे की पोजिशन पर खेलते वह सौ फीसदी अंक लेकर पास हुआ। उसे टीम की जान कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
टीम इंडिया का सबसे मजबूत पहलू हार नहीं मानने की जिद्द रही। ऑस्ट्रेलिया और बेल्जियम से हारे पर हार नहीं मानी। जर्मनी से पिछड़े लेकिन फिर आगे बढ़ निकले और जीत के साथ मैदान छोड़। बार बार पलट वार किए और कामयाबी पाई। लेकिन जीत का जश्न विदेशी कोचों की कड़ी मेहनत और उनके योगदान से ही संभव हो पाया है।
प्रायः विदेशी कोचों की आलोचना होती रही है। खेल मंत्रालय और साई पर अपने कोचों की अनदेखी और विदेशियों को बढ़ावा देने के आरोप लगाए जाते रहे हैं। लेकिन इस बार ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला। गोरे कोच भारतीय खिलाड़ियों को हर संभव बढावा देते नजर आए। बेशक, भारतीय कोचों की वापसी की राह भी मुश्किल हो गई है।
Shabdh nhi hai bhartiya hockey ki jeet ko bta kr sakei!! 135 cr ,41 saal buss itna he kaffi !!!
Well done boy’s 💐🌾…… itihaas mei swarniya aksharo sei likha jaiegi ye jeet!!!!!!!x
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