(हेमंत चंद्र दुबे बबलू बैतूल)
भारत के महान खिलाडी मिल्खा सिंह जिन्होंने भारतीय एथलेटिक का परचम 1960 के रोम ओलिम्पिक में फहराया उम्र भर सरकारों को जगाते रहे। लेकिन विडम्बना देखिये जिस शख्स को जीवन भर मान सम्मान दिया गया हो उसी इंसान की बातों पर सरकारो में बैठे नुमाइंदों ने बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया। जिस दिन से खेलो में भारत रत्न देने का रास्ता साफ हुआ उस दिन से लेकर अपनी अंतिम सांसों तक मिल्खा सिंह ध्यानचन्द जी को भारत रत्न देने की मांग करते रहे।
उनकी केवल एक सोच होती थी कि उनके सम्मानित होने से भारत का नोजवान प्रेरित होगा और प्रेरणा ले सकेगा कि किस तरह मेजर ध्यानचंद ने अपने देश के लिए जो कामयाबियां हासिल की वह किस कठिन परिश्रम से विपरीत परिस्थितियों में देश के लिये उन्होंने दिलवायी। साथ ही ध्यानचन्द जी को सम्मान मिलने का अर्थ होगा भारत के प्रत्येक खिलाड़ी का सम्मान।
क्या छोटा और क्या बड़ा क्योकि हर खिलाडी अपने मे ध्यानचन्द जी की छवि को बसाता है और उससे वह अपना खेल जीवन को आगे बढ़ता है और वे कहते थे कि- ध्यानचन्द की कामयाबियों में सबसे अहम यह है कि उन्होंने भारत को आजादी से पहले दुनिया के सबसे बडे मंच ओलिम्पिक में लगातार तीन स्वर्ण पदक भारत की झोली में डाले थे।
स्वयं इस बात को स्वीकारते थे कि ध्यानचन्द जी ने अपनी जिंदगी को हाथ की लकीरों और तक़दीर से नही बल्कि अपने आत्मबल और मेहनत की दम पर उसका निर्माण किया था, जिसने मुझे भी जीवन भर प्रेरित किया और इसलिए वे अपने उदगारों में हमेशा कहते रहे कि- हाथ की लकीरों से जिंदगी नही बनती ,मन की शक्ति भी कुछ होती है।
वे कहते थे खेलो से दिलो की दूरियां कम होती है खेल मोहब्बत के पैग़ाम होते है और इसी बात को बताते हुये वे कहते है कि जब भारत पाकिस्तान के रिश्ते सुधारने के उद्देश्य से उन्हें दौड़ने के लिये पाकिस्तान आमंत्रित किया गया तो उन्होंने वहां जाने से साफ इंकार कर दिया।
वजह साफ थी कि मिल्खा सिंह उस धरती पर वापिस नही जाना चाहते थे जिस धरती पर उनके माता पिता भाई बहनों का सिर धड़ से उनकी आंखों के सामने अलग कर दिया गया था। देश के विभाजन की त्रासदी को उन्होंने सहा था इसलिये वे वहाँ नही जाना चाहते थे ।
तब देश के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने उनसे अपील की थी किमोहब्बत का पैग़ाम लेकर आपको पाकिस्तान जाना होगा और दौड़ना होगा । मिल्खा सिंह मान गए और वे वहाँ दौड़ने के लिये लाहौर पहुचे। होटल में जाकर रुके तो पाकिस्तान के अखबारों का शीर्षक था भारत और पाकिस्तान की टक्कर होगी।
मिल्खा सिंह – खालिद यार का संघर्ष देखने को मिलेगा।यह सब पढ़कर मिल्खा सिंह को दुःख पहुचा उन्होंने प्रेस से कहाँ आप लोगो ने यह ठीक नही किया हम यहाँ अपने देश से मोहब्बत का पैग़ाम लेकर आये है।इसमें यह संघर्ष वाली बात ठीक नही। मेरे मुल्क ने आपके साथ मिलकर खेल खेले हैं, विशेष रूप से हॉकी के मैदान पर ध्यानचन्द -दारा की कामयाब जोड़ी को कौन भुला सकता है, जिसने भारत को लगातार तीसरा ओलिम्पिक स्वर्ण पदक विजेता होने का गौरव बर्लिन ओलिम्पिक में तानाशाह हिटलर के सम्मुख दिलवाया था।
मिल्खा सिंह स्टेडियम में दौड़ने के लिए तैयार हुये साठ हजार से अधिक दर्शक उस समय स्टेडियम में मौजूद थे खालिद यार ट्रैक पर मिल्खा सिंह के बगल में खड़े थे तब ही दो मौलवी मैदान पर आए और उन्होंने खालिद यार के सिर पर हाथ रखते हुये कहा ख़ुदा हाफिज आपको दुश्मनों पर फ़तह मिले।
मिल्खा सिंह को यह बात नागवार गुजरी उन्होंने आगे बढ़कर मौलवी जी से कहां मौलवी जी हम भी उसी ख़ुदा के बंदे है जिसके आप है इसमें दुश्मन वाली बात कौनसी है और कहां से आ गयी फिर उन मौलवियों ने मिल्खा सिंह के सिर पर हाथ रखकर कहा,खुदा आपको भी फतह दिलवाये मिल्खा सिंह खूब बेहतरीन दौड़े हवा को चीरते हुये उन्होंने भारत का परचम मोहब्बत का परचम लाहौर के स्टेडियम में फहरा दिया।
तब वहां उपस्थित पाकिस्तान जनरल अयूब खान ने मिल्खा सिंह को उड़न सिख की उपाधि से नवाजा। संयोग देखिये ध्यानचन्द भी हमेशा भाईचारे और मोहब्बत का संदेश लेकर ही देश के लिये खेले। यही कुछ केमेस्ट्री ध्यानचन्द और मिल्खा सिंह के बीच रही । शायद यही कारण है कि मिल्खा सिंह हमेशा ध्यानचन्द के सम्मान के लिए लड़ते रहे लेकिन सरकारों ने उनकी तब एक नहीं सुनी। काश देश की सरकारें मिल्खा सिंह जी जैसे महान खिलाडियों का सपना पूरा कर पातीं।