क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
जब कभी भी किसी सरकारी संस्थान में खिलाड़ियों की भर्ती की खबर प्रकाशित होती है तो लाखों खिलाड़ी हरकत में आ जाते हैं। इनमें कई खिलाड़ी ऐसे भी मिल जाएंगे जोकि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल चुके होते हैं। एक अनुमान के अनुसार एक पोस्ट के लिए पचास हज़ार से एक लाख तक आवेदन पहुँचते हैं और हर एक से जम कर आवेदन शुल्क भी वसूला जाता है।
कुछ दिन बाद खबर आती है कि किसी कारणवश खिलाड़ियों की नियुक्ति प्रक्रिया बाधित हो गई है। इसके बाद फिर कभी कोई खबर नहीं आती और बेरोज़गारों की लिस्ट लाखों से करोड़ों तक पहुँच जाती है।
खेल प्रोत्साहन का नारा क्यों?
देश के खिलाड़ियों के साथ केंद्र और राज्य की सरकारें पिछले तीन-चार दशक से लगातार मज़ाक कर रही हैं। एक तरफ तो देश को खेल महाशक्ति बनाने की बात की जा रही है, करोड़ों का फ़िजूल खर्च किया जा रहा है तो दूसरी तरफ खिलाड़ियों और उनके माँ-बाप को लूटा जा रहा है। ऐसा नहीं है कि यह खेल आजकल में शुरू हुआ है।
दरअसल, 1982 के दिल्ली एशियाड के आस पास खिलाड़ियों के लिए खेल कोटे की शुरुआत हुई थी। तमाम सरकारी और गैर सरकारी विभागों में सभी खेलों की भर्तियाँ की गईं। यह सिलसिला कुछ एक साल चला और धीरे धीरे धीमा पड़ता चला गया। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत क्या हुई कि खेलों को प्रोत्साहन के नारे ही बच पाए और नौकरियाँ लगभग लुप्त हो गईं।
नौकरी के लिए जुगाड़:
अक्सर यह देखने में आया है कि जब कभी किसी विभाग में दो-चार खेलों के लए आवेदन माँगे जाते हैं तो बेकार और बेरोज़गार खिलाड़ियों के झुंड निकल पड़ते हैं। जहाँ तक सरकारी नौकरी की बात है तो सेना, पुलिस, अर्धसैनिक बलों, आडिट, इनकम टैक्स और कुछ एक अन्य विभाग ही खिलाड़ियों की खबर लेते हैं।
कभी कभार कुछ बैंक और बीमा कंपनियाँ भी छुट पुट भर्ती करते हैं। लेकिन इन नौकरियों के पीछे का सच बेहद भयावह बताया जाता है। आरोप लगाए जाते हैं कि पहुँच वाले और बड़े अधिकारियों के सगे कब नौकरी पा जाते हैं किसी को पता भी नहीं चलता। असली हकदार और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन करने वालों की कोई पूछ भी नहीं होती। बस जुगाडू नौकरी पा जाते हैं।
कहाँ जाएँ राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी:
सरकारों के प्रोत्साहन देने पर बहुत से बच्चे मैदान में उतर रहे हैं। स्कूल, कालेज और राज्य स्तर पर हर साल कई हज़ार खिलाड़ी अपने अपने प्रदेशों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और तत्पश्चात बेरोज़गारों की लंबी कतार में खड़े हो जाते हैं। बेशक कई एक तो कतार में खड़े खड़े दम तोड़ जाते हैं और इस प्रकार उनके सालों साल की मेहनत बेकार जाती है।
यदि नौकरी मिल पाती है तो सिर्फ़ ओलंपिक, एशियाड, वर्ल्ड चैंपियनशिप और कामनवेल्थ खेलों के पदक विजेताओं को। ऐसे भाग्यशाली खिलाड़ियों की संख्या उंगलियों में गिनी जा सकती है। लेकिन जो कम भाग्यशाली हैं या जिन्हें सफलता नहीं मिल पाती, वे कहाँ जाएँ? क्या करें?
खेलना छोड़ें कुछ और चुनें:
चूँकि राष्ट्रीय स्तर पर अपने स्कूल, कालेज और प्रदेश को सेवाएँ देने वाले खिलाड़ियों को नौकरी नहीं मिल पाती इसलिए यह मानना पड़ेगा कि उनका खेलना बेकार गया। या यूँ भी कह सकते हैं कि उन्होने जीवन के दस- बारह बहुमूल्य साल बेकार कर दिए।
फिर कैसे मान लें कि खिलाड़ियों का भविष्य सुरक्षित है? इसमें दो राय नहीं कि सालों साल खिलाड़ी बढ़े हैं और नौकरियाँ घटी हैं। तो फिर नये सिरे से तालमेल बैठाने पर ध्यान देना पड़ेगा। खिलाड़ी और उसके अविभावकों को सोचना पड़ेगा कि वह खेल में बना रहे या समय रहते किसी अन्य व्यवसाय को अपनाए।
Sab gol maal hai sajwan bhai…khel aur khiladio kei liyei bola kuch jaata hai aur hota kuch aur hai…
Bbartiya khiladi chahei kisi bhi khel sei sambandh rakhtei hai……sab ram bharisei hai…..jiski kismat buland hai vhi khiladi banega baki sab mazduri karegei….🙏⚽