राजेंद्र सजवान/क्लीन बोल्ड
गाजे- बाजे, धूम -धड़ाका, सभा -समारोह और बधाई लेने देने का माहौल है। टोक्यो ओलंम्पिक में पदक जीतने वाले खिलाड़ियों के सम्मान में यह सब होना भी चाहिए। आखिर 140 करोड़ की आबादी वाले देश के सात खिलाड़ियों ने यह दिन दिखाया है। पदक विजेता ख़िलाड़ी हर बड़े से बड़े सम्मान के हकदार हैं। कामयाबी,पैसा, शौहरत उन्हें सब कुछ मिलना भी चाहिए।
लेकिन कल्पना कीजिए यदि नीरज चोपड़ा भारतीय दल का हिस्सा नहीं बन पाते या समापन समारोह के एक दिन पहले विजयी भाला न फेंक पाते तो क्या भारत को ऐसी खुशी नसीब हो पाती? शायद नहीं।
सरकार, खेल मंत्रालय, आईओए, एथलेटिक फेडरेशन और कोच खिलाड़ी आज जिस कामयाबी का जश्न मना रहे हैं, उसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ भाला फेंक के ओलंम्पिक स्वर्ण विजेता नीरज चोपड़ा को जाता है।
ऐसा नहीं है कि बाकी छह पदक विजेता किसी मायने में कम हैं। लेकिन एथलेटिक का पहला ओलंम्पिक पदकऔर वह भी स्वर्ण के रूप में जीत कर नीरज ने देश के खेलों को शेयर मार्केट जैसा उछाल दिया। यह उसके पदक का ही कमाल है कि भारतीय खेल आका बड़े बड़े ख्वाब देखने लगे हैं। देर से ही सही देश की सरकार भी खेलों के महत्व को समझने लगी है।
अच्छी बात यह है कि मीडिया का एक वर्ग आम नागरिकों तक यह संदेश भी पहुंचा रहा है कि ओलंम्पिक खेलों में भविष्य कैसे सुरक्षित है। लेकिन यही वक्त हैजब बड़ी बड़ी बातें करने वालों और बेमतलब की फेंकने वालों से बच कर रहना होगा।
टोक्यो ओलंम्पिक के नतीजों के बाद एक बात यह निकल कर आ रही है कि देश के नीति आयोग ने 2016 में एक 20 सूत्री कार्यक्रम बना कर 2024 के पेरिस खेलों में 50 पदक जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया था, जिसकी शुरूआत टोक्यों में सात पदकों के साथ हो चुकी है। यदि सच में ऐसा है तो भारतीय खेलों के नीति निर्माताओं को फिर से अपनी नीतियों और कार्यक्रमों पर गौर करने की जरूरत है।
यह न भूलें की यह वही देश है जिसने सौ सालों में दो स्वर्ण पदक सहित कुल 35 पदक जीते हैं। अगले तीन सालों में भारतीय खिलाड़ी कैसे 50 पदक जीत सकते हैं, यह तो नीति आयोग ही जानता होगा लेकिन एक स्वर्ण पदक की कामयाबी पर अति उत्साह दिखाना ठीक नहीं होगा।
भारतीय खेलों के नीति निर्माता पहले भी खेल मंत्रियों और खेल संघों को गुमराह करते आ रहे हैं। पूर्व खेल मंत्री सोनेवाल और किरण रिजिजू बड़े बड़े दावे कर के गए। उनके हिसाब से तो भारत को पदक तालिका में 10वें 12वें नंबर पर होना चाहिए था।
ऐसा तब ही संभव है जब हमारे खेल अधिकाधिक स्वर्ण पदक विजेता खिलाड़ी पैदा कर पाएंगे, जोकि आसान नहीं है। हॉकी के आठ स्वर्ण पदकों के अलावा हमारे पास बिंद्रा और नीरज के स्वर्ण ही हैं, जोकि वर्षों की कमाई हैं ।
रियो ओलंम्पिक के फ्लाप शो के बाद भारतीय खेल लंदन ओलंम्पिक के पदक रिकार्ड को बेहतर कर पाए हैं। वैसे, पेरिस भी ज्यादा दूर नहीं है। लेकिन बड़े बड़े दावों का सिलसिला पहले ही चल निकला है।
सवाल यह पैदा होता है कि हमारे खेल आका छोटी सी कामयाबी पर पगला क्यों जाते हैं? यह न भूलें की भारतीय खेलों को अभी लंबा सफर तय करना है। यात्रा लंबी और दुर्गम रास्तों से हो कर निकलेगी। टांग खिंचाई, साधन सुविधाओं की कमी, कठिन लक्ष्य और खेल संघों का भ्र्ष्टाचार खिलाड़ियों का मार्ग अवरुद्ध करेंगे।
इतना तय है कि भारतीय खिलाड़ियों ने यदि अहंकार और घमंड को करीब नहीं आने दिया तो उनका भविष्य उज्ज्वल है। जरूरी यह भी है कि भारतीय खेल संघ ईमानदारी से अपना काम करें और खिलाड़ियों को सभी सुविधाएं दें। बेकार के दावे ठीक नहीं। पेरिस ओलंम्पिक में हमारे खिलाड़ी तीन स्वर्ण सहित 10-12 पदक जीत पाए, तो यह भी चलेगा।
पचास पदकों का दावा जगहंसाई का कारण बन सकता है। इतनी लंबी छलांग के बारे में सोचना भी ठीक नहीं है। बेहतर होगा नीति आयोग फिर से अपनी रणनीति निर्धारित करे।