क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
भले ही सरकार ने खेलो इंडिया और फिट इंडिया जैसे खेल प्रोत्साहन कार्यक्रमों द्वारा देश में खेलों के लिए माहौल बनाने का प्रयास किया है लेकिन जब तक जड़ों को ईमानदारी और निष्ठा के साथ नहीं सींचा जाता चैंपियन खिलाड़ी तैयार करने में कामयाबी शायद ही मिल पाए।
अक्सर कहा जाता है कि चैंपियन खिलाड़ी तैयार करने के लिए बच्चों को छोटी उम्र से प्रशिक्षित करने की जरूरत है। उन्हें यदि पांच सात साल की उम्र से तैयार किया जाए तो आने वाले सालों में वे बेहतर खिलाड़ी बन कर सामने आ सकते हैं।
अर्थात स्कूल उनकी सबसे पहली और बड़ी खेल कार्यशाला है। खेल महाशक्ति अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, इंग्लैंड, इटली, फ्रांस, कोरिया, जापान और तमाम अग्रणी खेल राष्ट्र स्कूल स्तरके खिलाड़ियों को निखारने में लगे हैं और ओलंपिक चैंपियन तैयार कर रहे हैं।
तारीफ की बात यह है कि अनेक खिलाड़ी स्कूल स्तर पर ओलंपिक और विश्व खिताब जीत जाते हैं और उस उम्र में सन्यास ले लेते हैं, जिस उम्र में हमारे खिलाड़ी पहला सबक भी ठीक से नहीं सीख पाते। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन देशों में स्कूली खेल कुशल और ईमानदार हाथों में हैं।
जहां तक भारत की बात है तो भ्र्ष्टाचार स्कूल स्तर से शुरू होता है और धीरे धीरे पूरे सिस्टम को खा जाता है। बेशक, एसजीएफआई ही भारतीय खेलों को बर्बाद करने वाली सबसे घिनौनी संस्था है, जिसके हमाम में नंगों की भरमारहै।
पिछले दिनों हुए चुनाओं में जिस तरह से सब कुछ सर्वसम्मति से सम्पन्न हुआ उसे देख कर तो यही लगता है कि एक बार फिर समान विचारधारा वाले खेल बिगाड़ू इकट्ठे हो गए हैं।
खेलों की कसौटी पर यदि भारत को परखा जाए तो स्कूली खेल भारतीय खेलों का नासूर साबित होते आए हैं। भले ही कुछ खिलाड़ी स्कूल स्तर से पहचान बनाने में कामयाब हुए किंतु ज्यादातर ऐसे हैं जिनके लिए राष्ट्रीय स्कूली खेल सीखने और प्रतिस्पर्धा का आदर्श प्लेटफार्म नहीं रहे। कारण भारत के स्कूली खेल हमेशा से खेल माफिया के खिलवाड़ का मैदान रहे हैं, जिनकी बागडोर स्कूल गेम्स फेडरेशन (एसजीएफआई) नाम की भ्र्ष्ट संस्था के हाथों रही है।
तीस साल के अनुभव के आधार पर क्लीन बोल्ड इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि स्कूली खेल कभी भी देश के खेलों को सही दिशा देने में सफल नहीं रहे। एसजीएफआई पर आरोप लगाया जाता है कि उसके अवसरवादी अधिकारियों ने अपने स्वार्थों के चलते भारतीय खेलों को भारी नुकसान पहुंचाया। हाल ही में इस इकाई के चुनाव सम्पन्न हुए हैं।
जैसा कि हमेशा से होता आया है, इस बार भी तमाम पदाधिकारी निर्विरोध चुन लिए गए हैं। ऐसा इसलिए नहीं क्योंकि उनका पिछला रिकार्ड शानदार रहा है बल्कि इसलिए चूंकि खेलों को बर्बाद करने का दायित्व वे आपसी समझदारी से बारी बारी से निभाते आए हैं।
हालांकि चुने जाने के बाद सभी कह रहे हैं कि वे पिछली खामियों से पार पाने का प्रयास करेंगे और जो कुछ कमियां हैं उन्हें दूर करना पहली प्राथमिकता रहेगी।तो क्या नई टीम खेल और खिलाडियों के हितों पर ध्यान देगी ? क्या उम्र का फर्जीवाड़ा और मेजबान द्वारा की जा रही धोखाधड़ी रुक पाएगी? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि महासचिव से सी ईओ का पद अपने नाम करनेवाले राजेश मित्रा की निरंकुशता पर नकेल डाली जा सकेगी? लेकिन यह न भूलें कि नई टीम में वही पुराने चेहरे शामिल हैं, जोकि स्कूली खेलों के हर गुनाह में भागीदार रहे हैं।
फिरभी उम्मीद की जानी चाहिए कि एसजीएफआई पुराने चरित्र से बाहर निकल कर देश के खेलों को नई दिशा देने का ईमानदार प्रयास करेगी। ऐसा तब ही संभव है जब सरकार और खेल मंत्रालय स्कूली खेलों को गंभीरता से लें और उसे स्कूली खिलाड़ियों के भविष्य से खिलवाड़ ना करने दें। हैरानी वाली बात यह है कि किसी को मंत्रालय का डर नहीं है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो भारत का खेल भविष्य गर्त से शायद ही निकल पाए। खेल मंत्रालय यह ना भूले कि स्कूल खिलाड़ियों के भविष्य निर्माता हैं। यदि उनकी पितृ संस्था ही खेलों को बिगाड़ेगी तो खेल महाशक्ति बनने का सपना सिर्फ सपना रह जायेगा।
आपका लेख सही है लेकिन मुझे लगता है नए पदाधिकारियों को खुद को साबित करने के लिए समय देना चाहिए, हो सकता है बदलाव आए। वैसे भी हमारे पास और कोई उपाय भी नही है।