क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
खेल मंत्री किरण रिजिजू गाये बगाहे कहते मिल जाएंगे कि अपने कोचों को बढ़ावा देने की जरूरत है। अनेक अवसरों पर अपने कोचों पर विश्वास करने और उनकी सेवाएं लेने का दम भी भरते हैं। लेकिन उन्हें किसने रोका है? वह तो देश के खेलों के सर्वेसर्वा हैं।
कोई ठोस नीति क्यों नहीं बनाते? खुद खिलाड़ी होने का दम भी भरते हैं। जब तब अपने खेल ज्ञान से मीडिया को धन्य भी करते रहे हैं। यदि वह सचमुच अपने कोचों को बेहतर मानते हैं तो विदेशी कोचों के अनुबंध क्यों बढ़ाए जा रहे हैं? क्यों अपने कोचों को बेदखल कर रखा है?
खेल मंत्री का यह भी कहना है कि अधिकांश खिलाड़ी वदेशियों से ट्रेनिंग लेना चाहते हैं और जब तब उनसे फरियाद करने भी आते हैं। दूसरी तरफ देश के सफलतम बैडमिंटन कोच पुलेला गोपी चंद विदेशी और अपने कोचों का मिश्रण बेहतर मानते हैं।
वह यह भी कहते हैं कि विदेशों से श्रेष्ठ कोच नहीं मिल रहे तो फिर नतीजे बेहतर कैसे हो सकते हैं। वह कह रहे हैं कि जब दूसरे दर्जे के कोच आएंगे तो खिलाड़ी भी वैसे ही निकलेंगे।
इसमें दो राय नहीं कि भारत में विदेशी कोचों के नाम पर केवल फिजूल खर्ची हो रही है। खेल बजट का बड़ा हिस्सा विदेशी कोचों पर खर्च किया जा रहा है और नतीजे वही ढाक के तीन पात। कुछ पूर्व खिलाड़ी और कोच कहते हैं कि विदेशी भारतीय खेलों के लिए बोझ बनते जा रहे हैं। उनके आने जाने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा। जिन खेलों में भारतीय खिलाड़ी पदक जीत रहे हैं, उनके कोच भारतीय रहे हैं।
विदेशी कोचों की विफलता का बड़ा उदाहरण हॉकी, फुटबाल, एथलेटिक, बास्केटबॉल, तैराकी आदि खेल हैं जिनमें कई सालों से विदेशी कोच सिखा पढ़ा रहे हैं। उन पर लाखों करोड़ों खर्च आ रहा है पर नतीजे नहीं बदल पा रहे।
हॉकी में जब हम विश्व विजेता थे, ओलंपिक चैंपियन बने, तब हमारे अपने कोच सेवाएं दे रहे थे। फुटबाल में ओलंपिक खेले और एशियाड में दो अवसरों पर विजेता रहे। तब हमारे पास अपने कोच रहीम थे। एथलेटिक में पिछले चालीस सालों से विदेशी कोच पता नहीं क्या सिखा रहे हैं, पीटी उषा के कोच नाम्बियार जैसा करिश्माई गुरु एक भी विदेशी साबित नहीं हो पाया।
अर्थात तमाम खेलों को विदेशी कोच संवार नहीं पाए। कारण , उनमें से ज्यादातर दूसरे तीसरे दर्जे के होते हैं तो फिर चैंपियन कैसे पैदा कर सकते हैं? भारतीय खेल प्राधिकरण के साथ अनुबंध करने के बाद कहते मिलेंगे, ‘भारतीय खिलाड़ियों में अपार प्रतिभा है।’ लेकिन वापसी पर बयान देते हैं,’भारतीय खिलाड़ी कभी नहीं सुधर सकते।’
हैरानी वाली बात यह है कि पिछले कई सालों से द्रोणाचार्य अवार्ड दिए जा रहे हैं। दर्जनों गुरुओं को सम्मान मिल चुका है लेकिन इन गुरुओं को खेल का जिम्मा सौंपने में हिचकिचाहट कैसी? यह सच है कि आधे से ज्यादा द्रोणाचार्य फर्जीवाड़े की उपज हैं लेकिन उनमें ऐसे कई हैं जिनकी मेहनत से देश को एशियाड, कामनवेल्थ और ओलंपिक में पदक मिले हैं। उनकी उपेक्षा ठीक नहीं है।