क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
कोविड 19 ने यूं तो जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है,जिसके चलते आम और खास आदमी की कमर टूट गई है। लेकिन दुनियाभर के खिलाड़ियों और खेल पत्रकारों को अपेक्षाकृत ज्यादा बुरे दिन देखने पड़े हैं।
भले ही विश्व स्तर पर कुछ बड़े खेल आयोजन कोरोना की चुनौती को तोड़ते हुए जारी रहे, जैसे कि भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने आईपीएल का आधा अधूरा आयोजन किया पर अन्य भारतीय खेलों में मातम छाया रहा।जब खेल नहीं होंगे तो उभरते और स्थापित खिलाड़ियों के खेल भविष्य पर सवाल खड़ा होगा ही। इसी प्रकार विशुद्ध खेल पत्रकारों के रोजी रोजगार पर भी असर पड़ना स्वाभाविक है।
कोरोना ने जहां एक ओर लाखों खिलाड़ियों को घर की चार दीवारी में बांध कर रख दिया तो बेरोजगार खिलाड़ियों की कतार भी सुरसा की आंत की तरह फैल गई है। खेलमैदान सूने पड़े रहे, इसलिए अवसरवादी अखबार मालिकों ने खेल पत्रकारों को आसान शिकार जानते हुए उनकी छंटनी कर डाली। कई एक को तो महीनों तक वेतन नहीं दिया गया।
हैरानी वाली बात यह है कि कई राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने वर्षों से चले आ रहे अपने नियमित और फ्रीलांस पत्रकारों को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका। हालांकि खिलाड़ियों की बदहाली और बेरोजगारी की समस्या विश्वव्यापी है और शायद अन्य देशों के खेल पत्रकारों को भी बुरे दौर से गुजरना पड़ा है। लेकिन जहां तक अपने देश की बात है तो लाखों खिलाड़ियों का भविष्य अधर में लटक गया है तो खेल और खेल आयोजनों के दम पर जीवन यापन करने वाले हजारों खेल पत्रकार और सोशल मीडिया से जुड़े लोग दर बदर हुए हैं।
एक सर्वे से पता चला है कि महामारी से पहले अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर के लगभग बीस लाख खिलाड़ी बेरोजगारों की कतार में शामिल थे(बेरोजगार खिलाड़ियों की संख्या का कोई पुख्ता डाटा सरकार के पास उपलब्ध नहीं है)।
उन्हें रोजगार देने में केंद्र और राज्यों की सरकारें नकारा साबित हुईं। सिर्फ वही खिलाड़ी नौकरी पा सके जोकि एशियाड, ओलंपिक या कॉमनवेल्थ में पदक जीत पाए। वैसे भी बेरोजगार खिलाड़ियों की समस्या नयी नहीं है। आज़ादी से पहले और आज तक कई नामी खिलाड़ी रोजी रोटी नहीं पा सके। हर साल उनकी संख्या हजारों में बढ़ती चली गई।
भले ही हमारी सरकारें खेल महाशक्ति बनने का झूठा दावा करती रहें लेकिन सच यह है कि जो देश अपने खिलाड़ियों को रोटी और रोजी रोजगार नहीं दे सकता वह कैसे चैंपियन पैदा कर सकता है? कैसे खेल महाशक्ति बन पाएगा?
कोरोना काल में कई दिल दहलाने वाली कहानियां उभर कर आई हैं। दिल्ली,बिहार, महाराष्ट्र, छत्तीस गढ़, एमपी, यूपी, झारखंड, कर्नाटक और कई राज्यों के खिलाड़ियों , खेल आयोजकों, खेल प्रोमोटरों, अंपायरों, रेफरियों और कोचों को या तो भूखों मरना पड़ा या उन्हें दिहाड़ी-मजदूरी के लिए विवश होना पड़ा।
पिछले डेढ़ साल में कितने खिलाड़ी, कोच और अंपायर भूख और बेरोजगारी से मरे, कितने परिवार बर्बाद हुए, ऐसे आंकड़े सरकारों के पास नहीं मिलेंगे, क्योंकि उनके लिए खिलाड़ियों की कोई कीमत नहीं है।
सरकारों और लुटेरे खेल संघों को खिलाड़ी तब तक याद रहते हैं जब तक उनमें पदक जीतने का माद्दा बचा रहता है। कोरोना ने कितने खिलाड़ियों, कोचों और खेल से गुजर बसर करने वालों की जान ली, ऐसा रिकॉर्ड शायद ही किसी सरकारी विभाग के पास हो। शायद इसीलिए मेरा भारत महान है।