क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
जब उत्तरकाशी के नाकुरी गांव की बचेंद्री पाल एवरेस्ट पर तिरंगा फहराने वाली पहली भारतीय महिला बनी तो उत्तरप्रदेश का नाम सुर्खियों में आया था। लेकिन जब से उत्तराखंड अलग प्रदेश के रूप में अस्तित्व में आया है, बचेंद्री को उतराखण्ड की बेटी कहा जाने लगा है। अर्जुन, द्रोणाचार्य अवार्डों से सम्मानित और विश्व निशानेबाजी में बड़ी पहचान रखने वाले जसपाल राणा भी उत्तराखंड के प्रतिनिधि हैं।
पर्वतारोहण और निशानेबाजी के अलावा हॉकी, फुटबाल, क्रिकेट, एथलेटिक, ताइक्वांडो, मुक्केबाजी और कई अन्य खेलों में भी उत्तराखंडी खिलाड़ी चमक बिखेरते रहे हैं।दिनेश असवाल ने एक बॉडीबिल्डर के रूप में खूब नाम कमाया तो जयदेव बिष्ट मुक्केबाजी के द्रोणाचार्य बने।लेकिन ज्यादातर वही खिलाड़ी और कोच कामयाब रहे जोकि पहाड़ों को छोड़ बड़े शहरों में बस गए थे।
उत्तराखंड में खेलों के लिए संभावनाओं और अवसरों को खोजने का प्रयास करने से पहले यह जान लें कि गढ़वाली और कुमांउनी खिलाड़ी देशभर में फैले हुए हैं। दिल्ली का चैंपियन गढ़वाल हीरोज फुटबाल क्लब अपने खिलाड़ियों के दम पर खड़ा है।
तारीफ की बात यह है कि दिल्ली की फुटबाल और हॉकी उत्तराखंडी मूल के खिलाड़ियों के दम पर जिंदा है। कई अन्य खेलों में भी पहाड़ी खिलाड़ी नाम दाम कमा रहे हैं। लेकिन क्या कारण है कि प्रदेश के बड़े शहरों और पहाड़ के संपन्न गांवों में रहने वाले खिलाड़ी बड़ी पहचान नहीं बना पा रहे?
नार्थ ईस्ट सा है उत्तराखंड:
जहां तक संभावनाओं की बात है तो कुश्ती, मुक्केबाजी, एथलेटिक, मैराथन दौड़, जूडो, कबड्डी, खो खो, ताइक्वांडो, फुटबाल, हॉकी, वॉलीबॉल और दमखम एवम स्टेमिना वाले खेलों में हमारे खिलाड़ी नाम कमा सकते हैं।
मणिपुर का उदाहरण सामने है। लगभग सभी खेलों में मणिपुर और नार्थईस्ट के खिलाड़ी रिकार्ड तोड़ प्रदर्शन कर रहे हैं। उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियां भी मणिपुर, सिक्किम, असम और मेघालय जैसी हैं। उनकी तरह ही गढ़वाल और कुमांऊ के बच्चों और युवाओं में दमखम की कमी नहीं। लेकिन हमारे खिलाड़ी इसलिए पिछड़े हैं क्योंकि प्रदेश की सरकारों ने खेल को को कभी गंभीरता से नहीं लिया।
नाजायज कब्जा:
उत्तराखंड की स्थापना के बीस साल पूरे हो चुके हैं। लेकिन तमाम खेल इकाइयों और खेल संघों पर बाहरी लोगों का कब्जा है। हैरानी वाली बात यह है कि प्रदेश की सरकार सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनी हुई है। नतीजन खेल गतिविधियां सिर्फ कागजों में चल रही हैं।
स्कूल कालेज स्तर के आयोजन यदा कदा ही होते हैं। कुछ खिलाड़ियों और खेल आयोजकों के अनुसार सरकार द्वारा खेलों के लिए निम्न बजट बड़ी समस्या है। खेल बजट का बड़ा हिस्सा पहाड़ों में सफर करने और अधिकारियों की तीमारदारी में खर्च कर दिया जाता है।
मैदान नहीं, कहाँ खेलें?:
सबसे बड़ी समस्या यह है कि पहाड़ों पर बड़े बड़े फुटबाल और हॉकी के मैदान बहुतायत में नहीं बनाए जा सकते। लेकिन कबड्डी, खो खो, वॉलीबॉल, बास्केटबॉल, टेबल टेनिस, बैडमिंटन, कुश्ती, मुक्केबाजी , कराटे, ताइक्वांडो जैसे खेलों के लिए कोर्ट और मैदान भी उपलब्ध नहीं होने का सीधा सा मतलब है कि राज्य की सरकार और खेलों को संचालित करने वालों की नीयत में खोट है। 2018 के राष्ट्रीय खेलों का आयोजन उत्तराखंड को मिला था।
सरकार ने बड़े छोटे स्टेडियम बनाने का काम शुरू किया लेकिन खेल स्थगित होते रहे और अब शायद ही उत्तराखंड में आयोजन हो पाए। आयोजन समिति के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार प्रदेश की सरकार निर्माणकार्यों को लेकर बेहद सुस्त है।
क्रिकेट का पागलपन:
एक तरफ तो ओलंपिक खेलों के लिए साधन सुविधाओं की कमी है तो दूसरी तरफ उत्तराखंडियों पर भी क्रिकेट का जुनून चढ़ गया है। देहरादून में अंतरराष्ट्रीय स्तर का क्रिकेट मैदान तैयार हो जाने के बाद से हर गांव, गली, मोहल्ले और शहर में बच्चे गेंद बल्ले से खेलने लगे हैं।
जिन मैदानों पर कबड्डी और खो खो खेलना संभव नहीं हो पाता वहां क्रिकेट खेली जा रही है। खेल जानकारों और विशेषज्ञों की मानें तो क्रिकेट प्रदेश के बाकी खेलों पर बहुत भारी पड़ सकती है और शायद उन्हें तबाह भी कर दे।
कुल मिलाकर उत्तराखंड के खिलाड़ियों का भविष्य तब तक सुरक्षित नहीं हो सकता जब तक पहाड़ी मां बाप और कोच बच्चों में छिपे खिलाड़ी को नहीं पहचानते और सरकार खिलाड़ियों को सम्पूर्ण संरक्षण नहीं देती। प्रतिभाएं कदम कदम पर, हर गांव , ब्लॉक और जिले में मिल जाएंगी। जरूरत उन्हें मुख्य धारा से जोड़ने की है।
भारतीय खेलों में बड़ी पहचान रखने वाले एक वरिष्ठ अधिकारी की माने तो सरकार खेलों को लेकर जरा भी गंभीर नहीं है। उसे अपना नजरिया बदलना होगा।