क्लीन बोल्ड /राजेंद्र सजवान
भारतीय हॉकी आज कहाँ खड़ी है, सही तस्वीर टोक्यो ओलंपिक में नज़र आ जाएगी। हालाँकि हॉकी इंडिया और खेल मंत्रालय पुरुष और महिला टीमों से यह उम्मीद कर रहे हैं कि दोनों इस बार पदक जीत कर लौटेंगी। पदक का दावा करने के पैसे तो लगते नहीं।
शायद इसीलिए भारतीय हॉकी के कर्णधार पिछले चालीस सालों से झूठ पर झूठ बोल रहे हैं, हॉकी प्रेमियों को गुमराह कर रहे हैं और देशवासियों के खून पसीने की कमाई बर्बाद कर रहे हैं। और नतीजा, वही ढाक के तीन पात।
क्लीन बोल्ड का मकसद खेल को बुरा भला कहना नहीं है। खेल तो वैसे ही चलेगा जैसे उसे चलाने वाली पितृ संस्था और देश के खेल आका चलाना चाहेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी टीम खेल तब तक बेहतर परिणाम नहीं दे सकता जब तक एक टीम के रूप में उसके पास मैच विजेता खिलाड़ी उपलब्ध नहीं रहते।
कुछ पूर्व खिलाड़ियों के अनुसार भारतीय हॉकी के पास दौड़ भाग करने वाले खिलाड़ियों की कमी नहीं। स्पीड और स्टेमिना भी कूट कूट कर भरा है। फिर भी निर्णायक मैचों में जीत क्यों नहीं पाते? बार बार और लगातार अंतिम परीक्षा में फेल क्यों हो जाते हैं?
1980 के मास्को ओलंपिक में भारत ने अपना आठवाँ और आखरी स्वर्ण पदक जीता था। हालाँकि मास्को में जर्मनी, आस्ट्रेलिया, नीदरलैंड, पाकिस्तान जैसी दिग्गज टीमों ने भाग नहीं लिया। नतीजन भारत का काम आसान हो गया था। लेकिन उस टीम में मोहम्मद शाहिद, ज़फ़र इकबाल, सुरिंदर सिंह सोढी, एमके कौशिक, सोमैया, गुरमैल, राजिंदर सिह जैसे खिलाड़ी शामिल थे, जो एक टीम के रूप में बेजोड़ साबित हुए।
अब ज़रा ध्यानचन्द युग की तरफ मुड़ें तो 1928, 1932 और 1936 के ओलंपिक में मेजर ध्यान चन्द अपने आप में एक टीम के बराबर कौशल रखते थे। उनका साथ देने के लिए भाई रूप सिंह, एलन, जफ़्फ़र, दारा, हूसेन, फ़िलिप, मसूद जैसे दिग्गज थे। आज़ादी के बाद जब भारत 1948 के लंदन ओलंपिक में उतरा तो भारतीय टीम में सितारा खिलाड़ियों की भरमार थी, जिनमें कप्तान किशन लाल, पिंटो, तरलोचन, जेंटल, केशव दत्त, बलबीर सीनियर और 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में कप्तान केडी बाबू, जेंटल, धरम सिंह, क्लाडियस, केशव दत्त, बलबीर सिंह जैसे खिलाड़ी अपने आप में बड़े सितारे थे।
चार साल बाद जब बलबीर सिंह ने नेतृत्व संभाला तो टीम का लाइन अप विजेताओं से पटा पड़ा था। लक्ष्मण, जेंटल, बलकिशन, क्लाडियस, रघुबीर लाल, उधम सिंह, भोला जैसे चैम्पियनों की मौजूदगी में भला भारत को कौन रोक सकता था। जर्मनी को उसी के मैदान पर रौंद कर भारत ने अपना लगातार छठा स्वर्ण पदक जीता।
1960 के रोम ओलंपिक में भारत को पहली बार पाकिस्तान के हाथों फाइनल में हार का सामना करना पड़ा बेशक, बलबीर जैसे मैच विजेता खिलाड़ी की कमी खली लेकिन टोक्यो में भारत ने पाकिस्तान से हार का बदला तो लिया ही ओलंपिक स्वर्ण पदक फिर से जीत लिया। सातवाँ खिताब जीतने वाली टीम में कप्तान चरणजीत, शंकर लक्ष्मण, गुरबक्स, प्रिथि पाल, हरबिन्दर, धरम सिंह, मोहिंदर लाल और कई अन्य सितारे मौजूद थे।
1968 और 1972 में भारत को इसलिए कांस्य पदक से संतोष करना पड़ा क्योंकि टीम प्रबंधन और वरिष्ठ खिलाड़ियों के बीच तालमेल नहीं बैठ पाया। विवाद और परस्पर कटुता के चलते परिणाम प्रभावित हुए। हालाँकि 1976 के मांट्रियल खेलों तक कई बेहतरीन खिलाड़ी देखने को मिले लेकिन हरमीक सिंह, मुखबेन सिंह, माइकल किंडो, असलम शेर ख़ान, अशोक कुमार, गणेश, गोविंदा, अजित पाल सिंह, फ़िलिप्स, हरचरण, सुरजीत सिंह जैसे चमकदार नाम मैच विजेता साबित नहीं हो पाए।
1984 के लास एंजेल्स ओलंपिक से लेकर रियो ओलंपिक तक कुछ एक सितारा खिलाड़ी उभर कर आए लेकिन एक टीम के रूप में भारतीय प्रदर्शन निराशाजनक रहा। रोमियो जेम्स, ज़फ़र इकबाल, शाहिद, सोम्मैया, परगट, जगबीर, धनराज पिल्ले और कुछ अन्य खिलाड़ियों ने प्रभावित ज़रूर किया लेकिन मैच विजेता खिलाड़ियों की कमी खली।
सच्चाई यह है कि मैच दर मैच और ओलंपिक दर ओलंपिक ऐसे खिलाड़ी टीम का हिस्सा बनते चले गए जिन्हें हॉकी प्रेमी जानते तक नहीं। टोक्यो ओलंपिक के सम्भावितों पर सरसरी नज़र दौड़ाएँ तो दो-चार को छोड़ बाकी खिलाड़ियों को कोई नहीं जानता।
टोक्यो ओलंपिक में नतीज़ा कुछ भी रहे पर मैच विजेता और खिताब जीताने वाले खिलाड़ियों की कमी साफ दिखाई पड़ रही है। फिरभी यदि दावा कुछ कर गुजरने का है तो शायद भारतीय हॉकी यह साबित करने जा रही है कि स्टार खिलाड़ियों के बिना भी खिताब जीते जा सकते हैं।