क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
क्रिकेट वाकई बड़ा अजीबो ग़रीब खेल है। पता ही नहीं चलता कब हीरो ज़ीरो बन जाए और कब किसी चमत्कार से मेमना किसी शेर पर भारी पड़ जाए। पिछले कुछ सालों के नतीजों पर नज़र डालें तो 1983 के वर्ल्ड कप में वेस्ट इंडीज पर भारत की जीत को कुछ ऐसे ही चश्में से देखा जाता रहा।
लेकिन वक्त के साथ साथ भारत सहित तमाम क्रिकेट राष्ट्रों ने ख़ासी प्रगति की है और अब अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश जैसी टीमों द्वारा बड़ी टीमों को हराना अप्रत्याशित नहीं माना जाता।
दरअसल, सीमित ओवर और तत्पश्चात टी20 क्रिकेट के अधिकाधिक चलन ने खिलाड़ियों को चुश्त दुरुशत बना दिया है और उनकी फिटनेस मैच के परिणाम को प्रभावित करने लगी है।
लेकिन पिछले एक महीने में टेस्ट क्रिकेट में जो कुछ देखने को मिला उसके मायने ना तो भारतीय क्रिकेट समझ पाई है और शायद आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड को भी समझने में मुश्किल आ रही है। बेचारा क्रिकेट प्रेमी ठगा सा बस तमाशा देख रहा है और खेल का लुत्फ़ भी उठा रहा है।
इधर उधर की बातों की बजाय मुद्दे की बात करें तो एडिलेड टेस्ट की दूसरी पारी में मात्र 36 रन पर ढेर होने वाली टीम ब्रिसबेन टेस्ट में आस्ट्रेलिया पर भारी कैसे पड़ गई और कैसे लगभग हारी लग रही बाजी को जीत में तब्दील करने में सफल रही?
लेकिन ऐतिहासिक जीत के मात्र तीन हफ्ते बाद अपने मैदान, अपने दर्शकों अपने माहौल में विराट की टीम कैसे पस्त हो गई? यह ना भूलें कि ब्रिसबेन में धमाल मचाने वाली भारतीय टीम को आधा अधूरा कहा जा रहा था, जिसमें कप्तान कोहली सहित कई टाप खिलाड़ी शामिल नहीं थे। पूरे दमखम के साथ इंग्लैंड के विरुद्ध उतरी भारतीय टीम का जो हाल हुआ किसी से छुपा नहीं है।
इंग्लैंड के दौरे से पहले और चेन्नै टेस्ट की शुरुआत तक भारतीय क्रिकेट एक्सपर्ट्स और टीम प्रबंधन बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे। खिलाड़ियों का स्तुतिगान चल रहा था। अलग अलग एंगल से उन पर लेख लिखे जा रहे थे।
आस्ट्रेलिया के खिलाफ सीरीज़ जीतने के बाद उन्हें लग रहा था कि भारत अपनी सरजमीं पर इंग्लैंड को कुचल कर रख देगा। लेकिन क्रिकेट में यदि सब कुछ पूर्व भविष्यवाणी और सुनियोजित तरीके से होता तो इसे अनिश्चितता का खेल क्यों कहा जाता?
वैसे भी तीर तुक्के हमेशा निशाने पर नहीं बैठते। इतना ज़रूर है कि बेहतर खेलने वाली और अत्यधिक आत्मविश्वास के बोझ से मुक्त टीम का प्रदर्शन कुछ हटकर रहता है। जैसा कि इंग्लैंड ने किया।
सच तो यह है कि ऑस्ट्रेलिया से निर्णायक मुकाबला जीतने वाली टीम को अपनी हैसियत का पता था। अजिंक्य रहाणे भी जानते थे कि उन्हें सभी खिलाड़ियों से उनका श्रेष्ठ लेना है और उन्होंने ऐसा किया भी।
बेहद विनम्रता के साथ अपनी कमजोरी स्वीकारने का फायदा यह हुआ कि मेहमान को आसान शिकार समझने वाले कंगारू चूक कर बैठे और भारत एक ऐतिहासिक जीत अपने खाते में जोड़ने में सफल रहा।
इधर अपने घरु मैदान पर पूरे दम खम के साथ उतरने का गुमान विराट की टीम को ले डूबा। यह सही है कि भारतीय गेंदबाज इंग्लिश कप्तान जो रूट की जड़ें नहीं खोद पाए।
एंडरसन और लीच की सटीक गेंदबाजी का जवाब भी हमारे बल्लेबाजों के पास नहीं था। गेंदबाजों में भी वह ऑस्ट्रेलिया दौरे जैसी धार दिखाई नहीं दी।
इंग्लैंड के कप्तान को पता था कि जीत के नशे में डूबे प्रतिद्वंद्वी को और गहरे तक कैसे डुबोना है। रुट ने अपने श्रेष्ठ प्रदर्शन से टीम को प्रोत्साहित किया और बाकी का काम टीम इंग्लैंड ने बखूबी अंजाम दिया।
वैसे पूर्व इंग्लिश कप्तान पीटरसन ने ऑस्ट्रेलिया पर मिली जीत के बाद भारतीय टीम को खबरदार करते हुए ट्वीट किया था, ‘टीम इंडिया इतना जश्न ना मनाएं। इंग्लैंड से खबरदार रहें’।
बेशक, टीम इंडिया पर जीत का नशा भारी पड़ा। मेहमान कप्तान और टीम प्रबंधन मेजबान की कमजोर कड़ी को खोजने में सफल रहे और सालों बाद भारत को चेपक पर हार का मुंह देखना पड़ा।
यह तो मानना पड़ेगा कि क्रिकेट में कभी भी कुछ भी हो सकता है। जब कंगारू अपने घर पर परास्त हो सकते हैं तो घर का शेर अपने घर पर ढेर क्यों नहीं हो सकता?