राजेंद्र सजवान/क्लीन बोल्ड
महामारी के चलते जिस दृढ़ता और ठोस इरादों के साथ देश की राजधानी में वार्षिक लीग फुटबाल का आयोजन संपन्न हुआ उसके लिए दिल्ली साकार एसोसिएशन के अध्यक्ष शाजी प्रभाकरन, उनकी लीग आयोजन समिति, तमाम रेफरी, खिलाडी अधिकारी और क्लब साधुवाद के पात्र हैं|
उस समय जबकि देश और दुनिया में सब कुछ ठप्प पड़ा है फुटबाल दिल्ली ने अतिरिक्त जोखिम उठा कर भारतीय फुटबाल फेडरेशन और उसकी सोई हुई इकाइयों को जगाने का अभूतपूर्व प्रयास किया है| बहुत कम राज्य हैं जहाँ वार्षिक फुटबाल लीग का आयोजन सम्भव हो पाया है। बेशक, दिल्ली ने बाजी मारी है।
चैम्पियन को लेकर नाराजगी :
दिल्ली की फुटबाल के इतिहास पर सरसरी नज़र दौड़ाएं तो पिछले चालीस सालों में तमाम चैम्पियन क्लबों ने दिल्ली की फुटबाल का ताज बड़ी शालीनता के साथ पहना लेकिन इस बार के विजेता दिल्ली एफसी को लेकर बहुत कुछ कहा सुना जा रहा है।
इसमें दो राय नहीं की चंडीगढ़ की अकादमी के खिलाडियों से बने पेशेवर क्लब ने दिल्ली के क्लबों को अच्छा पाठ पढ़ाया और खिलाडियों ने चैम्पियनों जैसा व्यवहार किया लेकिन क्लब के मालिक और उसके सुरक्षाकर्मियों के व्यवहार को लेकर आयोजन समिति, अन्य क्लब अधिकारी और खासकर रैफरियों में गहरा आक्रोश देखा गया है। यह मुद्दा आगामी बैठकों में खासा आक्रामक हो सकता है।
कितने सुरक्षित हैं रैफरी :
इसमें दो राय नहीं की रैफरी से भी कभी कभार गलती हो जाती है। आखिर वह भी तो इंसान ही है लेकिन पिछले कुछ दिनों से दिल्ली के अपने रैफरियों को अपने क्लब अधिकारीयों द्वारा बुरा भला कहा जा रहा है। हैरानी वाली बात यह है की खेल बिगाड़ने वाले उनकी वीडियो बना कर माहौल बिगाड़ रहे हैं।
जो क्लब चैम्पियन बना उसकी अनुशासन हीनता को दर किनार कर रैफरियों को कोसना सरासर गलत ही नहीं निंदनीय है। चोरी और सीना जोरी जैसे माहौल में रैफरी कदापि सुरक्षित नहीं हैं। एक क्लब अधिकारी और उसके बद्तमीज़ सपोर्टर गाली देते रहें, बाउंसर पिस्टल दिखाएं तो भला उसकी, खिलाडियों की और आयोजकों की सुरक्षा की क्या गारंटी है? यह न भूलें की दिल्ली के रैफरी हमेशा से श्रेष्ठ रहे हैं।
आधी लीग में चैम्पियन बना दिया:
इसमें कोई शक नहीं कि डीएफसी ने चैम्पियनों जैसा खेल दिखाया और खिताब जीता लेकिन शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि आधी अधूरी सुपर लीग के चलते चैम्पियन का फैसला हो जाए। एक तरफ डीएफसी एक दिन के अंतराल से मैच खेलती रही और तब चैम्पियन बन गई जबकि बाकी क्लब आधा सफर भी तय नहीं कर पाए थे।
कहाँ सांठ गाँठ हुई और क्यो? यह मुद्दा विचारणीय है। आखिर क्यों एक क्लब को लाभ पहुंचाने के लिए तमाम कायदे कानून ताक पर रखे गए और क्यों लीग के रोमांच से खिलवाड़ किया गया, कुछ क्लब स्पष्टीकरण चाहते हैं!
स्थानीय खिलाडी कहाँ हैं?
कुछ साल पहले तक सभी क्लबों में दिल्ली के अपने खिलाडियों कि भरमार थी लेकिन आज हालत यह है कि दिल्ली के खिलाडी खोजे नहीं मिल पाते। यह सही है कि पेशेवर फुटबाल में सबके लिए दरवाजे खुले हैं लेकिन अधिकांश क्लब चाहते हैं कि स्थानीय खिलाडियों को अधिकाधिक अवसर दिए जाएं। इस बारे में एक राय जरूरी है ताकि दिल्ली की अपनी प्रतिभाओं को अवसर मिल सके।
डीएसए अध्यक्ष शाजी के अनुसार रैफरियों, खिलाडियों और फुटबाल प्रेमियों की सुरक्षा सबसे पहले है और भविष्य में इस ओर विशेष ध्यान दिया जाना जरुरी है।