July 19, 2025

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फिर विदेशी चाबुक पर नाचेगी बेशर्म फुटबॉल

  • भारत के सबसे सफल फुटबॉल कोच सैयद अब्दुल रहीम की देखरेख में दो एशियाई खेलों (1951 और 1962) की स्वर्णिम जीत को सालों बीत गए हैं
  • 1955 में इंग्लिश कोच बर्ट फ्लैटली ने पहले विदेशी कोच के रूप में भारतीय टीम का कार्यभार संभाला
  • यह सही है कि कोई भी विदेशी कोच भारतीय फुटबॉल की नब्ज पकड़ने में सफल नहीं हो पाया
  • अपनी शर्तों पर आए तमाम विदेशी कोच रोते बिलखते हुए एआईएफएफ को कोसते हुए विदा हुए और यह सिलसिला वर्षों से चल रहा है

राजेंद्र सजवान

भारतीय फुटबॉल एक बार फिर उस चौराहे पर आ खड़ी हुई है, जहां से हर रास्ता पतन की गहरी खाई में जाता है और जिसकी अगुवाई देश की फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) कर रही है l चाबुक फिर विदेशी कोच के हाथ रहने की सम्भावना है। भारतीय टीम ने कब देशवासियों को गौरवान्वित करने वाला प्रदर्शन किया था, आज की पीढ़ी को शायद ही पता हो। दो एशियाई खेलों की जीत (1951 और 1962) को सालों बीत गए हैं। तत्पश्चात छुट-पुट जीत मिली, जिन पर गर्व करने का कोई बड़ा कारण नजर नहीं आता। जहां तक विदेशी कोचों की भूमिका की बात है तो बॉब हॉटन और स्टीफन कॉन्स्टेंटाइन का योगदान ठीक-ठीक रहा, क्योंकि दोनों के मैनेजर रहते भारतीय टीम को एएफसी एशियन कप में प्रवेश मिला था। लेकिन कोई भी विदेशी कोच सैयद अब्दुल रहीम के सफलतम रिकॉर्ड को नहीं छू पाया।

प्राप्त जानकारी के अनुसार 1955 में इंग्लिश कोच बर्ट फ्लैटली ने पहले विदेशी कोच के रूप में भारतीय टीम का कार्यभार संभाला। हैरी राइट और बूटलैंड उनके बाद टीम से जुड़े। दोनों ही इंग्लैंड से थे। तत्पश्चात जो किन्यिर, मिलोवन सिरिक, गेलेर्ड, जिरी पैसेक, अकरामोव, अहमदोव, बॉब हॉटन, स्टीफन कॉन्स्टेंटाइन, विम कोरमेंस, इगोर स्टीमैक और हाल में स्पेनिश मैनोलो मार्कुएज आया राम गया राम की तरह भारतीय टीम से जुड़े और बुरा भला कहते हुए पदमुक्त हुए।

यह सही है कि कोई भी विदेशी कोच भारतीय फुटबॉल की नब्ज पकड़ने में सफल नहीं हो पाया। अपनी शर्तों पर आए और रोते बिलखते हुए एआईएफएफ को कोसते हुए विदा हुए। यह सिलसिला वर्षों से चल रहा है और अब कोई और विदेशी कोच आने वाला है। फिलहाल, तलाश जारी है। लेकिन जो भी आएगा उसकी पहली शर्त यह होगी कि भारतीय फुटबॉल के सुधरने की कोई गारंटी नहीं देगा।

ऐसा स्वभाविक भी है। भला दिन पर दिन, साल दर साल जिस देश की फीफा रैंकिंग गिर रही है और जिसे कोई भी ऐरा-गैरा पीट देता है उसे कोई भी शातिर और नामी कोच भी नहीं बचा सकता l कारण, एआईएफएफ पूरी तरह फेल हो चुका है और गंदी राजनीति का शिकार है, ऐसे में कोई भी विदेशी या स्वदेशी क्या कर सकता है?

फिलहाल महिला फुटबॉल के प्रदर्शन पर फेडरेशन फूली नहीं समा रही है। नकारा और निकम्मों को जी बहलाने का मसाला मिल गया है। लेकिन ऐसे करिश्मे कभी-कभार हो जाते हैं। यह सही है कि महिलाओं का प्रदर्शन पुरुष टीम के लिए एक और चुनौती बन गया है। देखते हैंकि अब कौनसा विदेशी भारतीय फुटबाल की खबर लेने आता है!

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