भारतीय फुटबॉल:  सत्ता का मोह, फिक्सिंग, हार और तिरस्कार

क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान

      दिन पर दिन और मैच दर मैच गिरावट की हदें पार करने वाली भारतीय फुटबॉल आज वहां खड़ी है  जहां से हर रास्ता नीचे की तरफ जाता है। पिछले कई सालों से भारतीय फुटबॉल प्रेमी किसी छोटी-मोटी खुशखबरी के लिए तरस रहे हैं।  इसके उलट बुरी ख़बरें रोज ही सुनने को मिलती हैं।  मसलन, एशियाड  या एशियन चैम्पियनशिप में खेलने की पात्रता नहीं पा सके या दोस्ताना मुकाबलों में हार कर फीफा रैंकिंग में और पिछड़ गए हैं।

        हाल फिलहाल गोवा प्रो लीग में मैच फिक्सिंग की चर्चा जोरों पर है।  आरोप लगाया जा रहा है कि लीग में कुछ मैच बाकायदा फिक्स थे। लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। भले ही भारतीय फुटबॉल के स्तर में लगातार गिरावट आई है लेकिन मैच फिक्सिंग की कला में  भारतीय खिलाड़ी, क्लब अधिकारी फुटबॉल प्रेमी सालों से पारंगत हैं।  खासकर,  कोलकाता और गोवा के बड़े-छोटे क्लब पिछले कई साल से फिक्सिंग करते आ रहे हैं।  उनके देखा देखी अन्य प्रदेशों में भी फिक्सिंग और सट्टेबाजी की बीमारी तेजी से फ़ैली है।

     एआईएफएफ अध्यक्ष प्रफुल पटेल 12 साल तक राज करने के बाद भी पद नहीं छोड़ना चाहते तो सचिव कुशल दास  पर  व्यविचार के गंभीर आरोप लगे हैं। पटेल सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का भी पालन नहीं कर रहे तो सचिव महाशय पर मिनर्वा और फुटबाल दिल्ली के शीर्ष अधिकारी रणजीत बजाज ने महिला सहकर्मियों के साथ दुष्कर्म के आरोप लगाए हैं, हालांकि वह खुद को निर्दोष बता रहे हैं।

     पटेल के राज में भारतीय फुटबॉल की हालत बहुत खराब हुई है। राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर हर तरफ गिरावट नजर आती है। गोवा, केरल, जे एन्ड के, महाराष्ट्र,  यूपी, दिल्ली , नार्थ ईस्ट और तमाम प्रदेश एआईएफएफ के जंगल राज से दुखी हैं।  फुटबॉल के नाम पर देश में सिर्फ घटिया दर्जे की आईएसएल और आई लीग खेली जा रही हैं। देश के तमाम बड़े छोटे टूर्नामेंट ठप्प पड़े हैं या निहित स्वार्थों के चलते बेच खाए हैं, ऐसा देश भर की फुटबॉल एसोसिएशन कह रही हैं।

       तमाम सदस्य इकाइयां  कह रही हैं कि फेडरेशन  ईमानदार नहीं है इसलिए तमाम राज्यों और सदस्य इकाइयों के करता धर्ता भी मनमानी पर उतर आए हैं।  गोवा, केरल, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश, पंजाब,  हरियाणा, तमिलनाडु और कई अन्य प्रदेशों में लीग फुटबॉल का आयोजन यदा-कदा हो पाता  है या पूरी तरह ठप्प है। तो फिर खिलाड़ी कहाँ जाएं? किसके आगे गिड़गिड़ाएँ? यह भी देखने में आया है कि तमाम प्रदेशों में वही घिसे पिटे चेहरे सालों से प्रदेश की फ़ुटबॉल को बर्बाद कर रहे हैं। मुंशी और पटेल की तरह उनका सत्ता सुख भोग का मोह जाते नहीं जा रहा।

       हाल ही में देश की अधिकांश एसोसिएशन के चुनावों में जैसा तमाशा देखने को मिला उससे यह तो साफ़ हो गया कि देश में फुटबॉल सहित तमाम खेलों में बैठे पदाधिकारी मरते दम तक कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते, जिनमें दिल्ली, बंगाल और अन्य राज्य भी शामिल हैं। जो पदाधिकारी पिछले तीन चार दशकों से सत्ता सुख भोग रहे हैं, जिन्होंने पद पर रहते तमाम घोटालों के आरोप सहे उनका फुटबॉल प्रेम जाते नहीं जा रहा। लेकिन जिस देश की शीर्ष इकाई का राजा ही सत्ता लोलुप हो उसके प्रजापतियों से क्या उम्मीद की जा सकती है!

         कुल मिला कर भारतीय फुटबॉल की बीमारी लाइलाज हो चुकी है। पिछले चालीस सालों में सुधार के प्रयास नहीं किए गए और ना ही सरकार ने कभी अधिकारियों  की कारगुजारी पर ध्यान दिया।  कुर्सी से चिपके रहना, भ्र्ष्टाचार, फिक्सिंग और हार भारतीय फुटबॉल का चरित्र बन गए हैं।  ऐसे में भारतीय फुटबाल के अच्छे दिनों कि कल्पना से भी डर लगता है।

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