दिल्ली की फुटबॉल का दिल यह स्टेडियम पिछले कई सालों से बीमार है और तुरंत इलाज मांग रहा है
दिल्ली नगर निगम के इस स्टेडियम की पिच, दर्शक दीर्घाएं और छत की हालत अच्छी नहीं है
बदहाली के शिकार होने के कारण इसमें कभी भी हो सकता है बड़ा हादसा
कुछ माह पहले वीआईपी स्टैंड की छत का पलस्तर गिर गया था तो अफरा-तफरी मच गई थी
क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
इंडोनेशिया के जावा प्रांत की दर्दनाक घटना से फुटबॉल जगत सन्न रह गया है। दो फुटबाल क्लबों के बीच की हिंसा में सवा सौ लोगों की जान जाने से देश और दुनिया की फुटबॉल और उसके कर्णधार शायद ही कोई सबक लेना चाहेंगे। हो सकता है दो चार दिनों के मातम के बाद सब कुछ पहले जैसा सामान्य हो जाएगा और फिर किसी अगले नरसंहार पर मातमी धुन बज सकती है। यदि वक्त रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए तो अपने देश के फुटबॉल स्टेडियमों से भी बुरी खबर आ सकती है, जिनमें दिल्ली का डॉ. बीआर अम्बेडकर स्टेडियम भी शामिल हो सकता है।
इंडोनेशिया में जो कुछ हुआ पहली बार नहीं हुआ है। पहले भी कई बार स्टेडियमों की छत गिरने, स्टैंड्स टूटने, समर्थकों के बीच मार पीट, भगदड़ और अन्य कारणों से सैकड़ों जाने जाती रही हैं। इस प्रकार के हादसे भारतीय फुटबॉल में भी होते रहे हैं लेकिन उनका रूप स्वरुप इस कदर भयावह नहीं रहा। ऐसा इसलिए क्योंकि दुनियाभर में फुटबॉल का स्तर बढ़ा है, फुटबॉल प्रेमियों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ दुर्घटनाएं भी बढ़ी हैं। इधर भारतीय फुटबॉलप्रेमी मुट्ठी भर रह गए हैं क्योंकि हमारी फुटबॉल में दम नहीं है।
भले ही देश में कोलकत्ता, मुंबई, गोवा, बंगलुरु, केरल, कर्नाटक में कई अच्छे और स्तरीय स्टेडियम हैं लेकिन जब दिल्ली की बात आती है तो आम फुटबॉलप्रेमी और खिलाड़ी सीधे डॉक्टर अम्बेडकर स्टेडियम पहुँच जाता है, जो कि पिछले कई सालों से बीमार है और तुरंत इलाज मांग रहा है। दिल्ली नगर निगम के इस स्टेडियम की पिच, दर्शक दीर्घाएं और छत की हालत अच्छी नहीं है फिर भी खेल जारी है। कुछ माह पहले वीआईपी स्टैंड की छत का पलस्तर गिर गया था तो अफरा- तफरी मच गई थी। बाद में लीपा-पोती कर दी गई। दर्शकों के बैठने के लिए बने स्टैंड्स और कुर्सियां भी दयनीय स्थिति में हैं तो चेंजिंग रूम, रेफरी रूम, कार्यालय सब कुछ बदहाली के शिकार हैं।
1982 के दिल्ली एशियाड और तत्पश्चात 2010 के कॉमनवेल्थ खेलों के चलते इस स्टेडियम को थोड़ा बहुत सजाया संवारा गया , टूट-फूट पर चेपियाँ लगाई गईं और रंग रोगन किया गया लेकिन खतरा अभी टाला नहीं है। सबसे बड़ा खतरा स्टेडियम की छत है जो कि कभी भी किसी बड़े आयोजन के चलते चरमरा कर गिर सकती है। गनीमत यह है कि पिछले कई सालों से अंबेडकर स्टेडियम पर कोई बड़ा अंतर्राष्ट्रीय मैच नहीं खेला गया। डूरंड और डीसीएम जैसे बड़े टूर्नामेंट कब के गायब हो चुके हैं और दिल्ली लीग में खचाखच भरने वाला स्टेडियम अब गिनती के फुटबॉलप्रेमियों तक सिमट कर रह गया है।
खेलप्रेमी यह भी जानते हैं कि किस प्रकार कुश्तियों, और राजनीतिक रैलियों के आयोजन से स्टेडियम को बर्बाद किया गया। निगम का हमेशा यह रोना रहा है कि फण्ड नहीं है, कर्मचारियों को देने के लिए वेतन नहीं है तो फिर दिल्ली की फुटबॉल का दिल कहे जाने वाले स्टेडियम का सुधार कैसे होगा? क्या बगल में सटे विशाल कोटला स्टेडियम को देखकर जिम्मेदार लोगों को शर्म नहीं आती?
फिलहाल राजधानी के फुटबॉल प्रेमी दिल्ली के उप-राजयपाल महोदय से उम्मीद कर रहे हैं। दिल्ली और देश की सरकार को भी गंभीरता दिखानी होगी। वरना उनका खेल प्रोत्साहन का नारा मज़ाक बन कर रह जाएगा।