उत्तराखंड ने संतोष ट्रॉफी के पिछले संस्करण की तुलना में इस बार बेहतर प्रदर्शन किया और मेजबान दिल्ली को आसानी से नहीं जीतने दिया
पिछले बीस सालों से पहाड़ी प्रदेश की फुटबॉल लगातार उतार के दौर से गुजर रही है
जबसे इस पहाड़ी क्षेत्र को अलग राज्य का दर्जा मिला है, फुटबॉल का निरंतर पतन हुआ है
पहले से जमे बैठे पदाधिकारियों के स्वार्थ और नए-नेताओं व फुटबॉल के कर्णधारों ने प्रदेश के खेलों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया
बदतर माहौल होने के कारण ज्यादातर प्रतिभाशाली फुटबॉलर उत्तराखंड छोड़कर दिल्ली, हिमाचल, यूपी, चंडीगढ़ आदि प्रदेशों की राह पकड़ते रहे हैं
राजेंद्र सजवान
संतोष ट्रॉफी के लिए 76वें राष्ट्रीय पुरुष फुटबॉल चैम्पियनशिप में उत्तराखंड का प्रदर्शन ठीक-ठाक कहा जा सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि पिछली चैम्पियनशिप में पंजाब और मेजबान दिल्ली से उत्तराखंड को क्रमश: दस- दस गोलों की शर्मनाक हार का मुंह देखना पड़ा था। लेकिन इस बार उत्तराखंड की टीम बदली-बदली नजर आई। यह कहना गलत नहीं होगा कि उत्तराखंड ने इस बार बेहतर प्रदर्शन किया और मेजबान दिल्ली को आसानी से नहीं जीतने दिया। भले ही दिल्ली कड़े संघर्ष में 2- 1 से जीत गई लेकिन पराजित टीम में आया बदलाव हैरान करने वाला है। अन्य मैचों में भी उत्तराखंड ने सधा हुआ प्रदर्शन किया।
इस बदलाव के बारे में उत्तराखंड के कोच, खिलाड़ियों और टीम प्रबंधन का कहना है कि अब टीम चयन में पारदर्शिता आई है, जो कि सालों बाद संभव हो पाया है। लेकिन यह स्थाई कदापि नहीं है, क्योंकि पिछले बीस सालों से पहाड़ी प्रदेश की फुटबॉल लगातार उतार के दौर से गुजर रही है। खासकर, जबसे इस पहाड़ी क्षेत्र को अलग राज्य का दर्जा मिला है, फुटबॉल का निरंतर पतन हुआ है। नए राज्य की नई फुटबॉल एसोसिएशन में कहीं कुछ नया देखने को नहीं मिल पाया। वही, यूपी के अवसरवादी सालों तक खैर-ख्वाह बने रहे। नतीजन फुटबॉल कल्चर लगभग खत्म हो गया।
कुछ खिलाड़ियों के अनुसार, उनके पिता और बड़ों के वक्त उत्तराखंड की फुटबॉल ने देश को अनेक नामी खिलाड़ी दिए। कई खिलाड़ी बड़े-बड़े क्लबों में खेले। खासकर, देहरादून में फुटबॉल अपने चरम पर थी। लेकिन यूपी से अलग होने के बाद नया प्रदेश अपने खेलों को संभाल नहीं पाया। बड़ा कारण, पहले से जमे बैठे पदाधिकारियों के स्वार्थ रहे तो नए-नेताओं और फुटबॉल के कर्णधारों ने प्रदेश के खेलों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया। वो भी तब, जब फुटबॉल प्रदेश का पहला खेल था, पिछड़ता चला गया।
उत्तराखंड की टीम पर सरसरी नजर डालें तो ज्यादातर खिलाड़ी बड़ी उम्र के हैं। जाहिर है उभरते खिलाड़ियों के लिए अवसरों का अभाव है। कुछ खिलाड़ियों ने अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर कहा कि गंदी राजनीति खिलाड़ियों का अहित कर रही है। एक बड़ी पार्टी तमाम खेलों पर कब्जा करना चाहती है लेकिन खेल संघों को सुधारने की किसी की नीयत नहीं है।
टीम से जुड़े एक अधिकारी के अनुसार, जिला स्तर पर फुटबॉल इकाइयां असंगठित हैं और पुराने अधिकारियों के इशारे पर नाच रही है। क्योंकि खिलाड़ियों के लिए माहौल बद से बदतर हो गया है इसलिए ज्यादातर फुटबॉलर प्रदेश छोड़ कर दिल्ली, हिमाचल, यूपी, चंडीगढ़ आदि प्रदेशों की राह पकड़ते रहे हैं।
ऐसे में यदि संतोष ट्रॉफी के नतीजों से सुधार का संकेत मिलता है तो उत्तराखंड की फुटबॉल के माई-बापों को जाग जाना चाहिए। सबसे पहले मृत पड़े क्लबों को जिंदा करने की जरूरत है। साथ ही प्रमुख इकाई और उसकी सदस्य इकाइयों को भी घटिया राजनीति और गंदी मानसिकता से ऊपर उठ कर सोचना होगा। लेकिन प्रदर्शन में सुधार का मतलब यह है कि काफी कुछ सुधार हो रहा है। यह प्रक्रिया जारी रही तो उत्तराखंड फुटबॉल में ताकत बन सकता है।