क्रिकेट अपने दम पर, बाकी खेल नाकारा!

  • भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता का ग्राफ 1983 के वर्ल्ड कप (प्रूडेनशियल कप) में जीत के साथ उठना शुरू हुआ और वक्त के साथ-साथ भारतीय खिलाड़ियों के प्रदर्शन में लगातार सुधार हुआ
  • आज आलम यह है कि भारतीय बोर्ड सबसे धनाढ्य है और क्रिकेटर करोड़ों में खेल रहे हैं और गावस्कर, कपिल, सचिन, धोनी, विराट और दर्जनों अन्य क्रिकेटरों को विश्व क्रिकेट में जो मान-सम्मान प्राप्त है, शायद अन्य किसी खेल का कोई खिलाड़ी इस कदर जाना-पहचाना और चर्चित हो
  • ओलम्पिक व विश्व चैम्पियन के रूप में नीरज चोपड़ा तब उभर कर आया, जब पूरा भारतवर्ष क्रिकेटमय हो चुका था
  • जब खेलों में पिछड़ने की बात आती है तो कारण खोजते समय हम यह भूल जाते हैं कि हर बच्चे और युवा का पहला सपना क्रिकेटर बनना होता है
  • क्रिकेट प्रशासक, अधिकारी, खिलाड़ी, अभिभावक, बड़ी-छोटी कंपनियां और प्रायोजक क्रिकेट पर विश्वास करते हैं

राजेंद्र सजवान

इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता का ग्राफ 1983 के वर्ल्ड कप (प्रूडेनशियल कप) में जीत के साथ उठना शुरू हुआ। उससे पहले अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में भारत की हैसियत कुछ खास नहीं थी। वक्त के साथ-साथ भारतीय खिलाड़ियों के प्रदर्शन में लगातार सुधार हुआ। क्रिकेट बोर्ड (बीसीसीआई) और उसकी सदस्य इकाइयों के संयुक्त प्रयासों से भारतीय क्रिकेट में समय-समय पर अनेक मैच विजेता उभर कर सामने आए। आज आलम यह है कि भारतीय बोर्ड सबसे धनाढ्य है और क्रिकेटर करोड़ों में खेल रहे हैं। गावस्कर, कपिल, सचिन, धोनी, विराट और दर्जनों अन्य क्रिकेटरों को विश्व क्रिकेट में जो मान-सम्मान प्राप्त है, शायद अन्य किसी खेल का कोई खिलाड़ी इस कदर जाना-पहचाना और चर्चित हो। दुर्भाग्यवश अन्य भारतीय खेल क्रिकेट से पहले चर्चा में आए। कई चैम्पियनों ने देश का नाम रोशन किया लेकिन वक्त के साथ-साथ सबकी पहचान धूमिल पड़ती चली गई।

 

  आजादी से पहले 1928, 32 और 36 में भारतीय हॉकी ने ओलम्पिक स्वर्ण जीते। भारतीय फुटबॉल ने 1951 और 1962 के एशियाई खेलों में स्वर्णिम सफलता पाई। क्रिकेट के वर्चस्व से पहले मिल्खा सिंह और पीटी उषा ने भारतीय एथलेटिक्स का गौरव बढ़ाया लेकिन ओलम्पिक व विश्व चैम्पियन के रूप में नीरज चोपड़ा तब उभर कर आया, जब पूरा भारतवर्ष क्रिकेटमय हो चुका था।

   सिडनी ओलम्पिक (2000) की कांस्य पदक विजेता कर्णम मल्लेश्वरी, बीजिंग ओलम्पिक (2008) स्वर्ण पदक विजेता अभिनव बिंद्रा, दोहरे ओलम्पिक पदक (बीजिंग (2008) में कांसा और लंदन (2012) में रजत) विजेता सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त, एथेंस (2004) में कांस्य विजेता राज्यवर्धन सिंह राठौड़, सायना नेहवाल, मैरिकॉम, गगन नारंग (लंदन ओलम्पिक (2012) में चारों कांस्य पदक विजेता), 1996 के एटलांटा ओलम्पिक के कांस्य विजेता लिएंडर पेस, लंदन ओलम्पिक (2012) के रजत विजेता विजय कुमार, बीजिंग (2008) में कांस्य विजेता विजेंद्र सिंह, दोहरे ओलम्पिक पदक (रियो (2016) में रजत और टोक्यो (2020) में कांसा) विजेता पीवी सिंधू, टोक्यो ओलम्पिक (2020) के रजत पदक विजेता रवि दहिया, मीरा बाई चानू और कुछ अन्य खिलाड़ी तब राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर उभर कर सामने आए, जब भारतीय खेल क्रिकेट के सामने बौने हो चुके थे।

   इसमें दो कोई राय नहीं है कि कुछ भारतीय खेलों पर सरकार और खेल संघ खासे मेहरबान हैं। खिलाड़ियों को बेहतर सुविधाएं मिल रही हैं और उनका जीवन स्तर सुधर रहा है। लेकिन क्रिकेट और अन्य भारतीय खेलों के बीच का फासला लगातार बढ़ता जा है। जब खेलों में पिछड़ने की बात आती है तो कारण खोजते समय हम यह भूल जाते हैं कि हर बच्चे और युवा का पहला सपना क्रिकेटर बनना होता है।    मां-बाप भी अपने बेटे-बेटियों को क्रिकेटर बनाना चाहते हैं, क्योंकि एक झटके में उनकी संतान करोड़ों कमा सकती है जबकि अन्य खेलों में भविष्य बर्बाद होने का खतरा बना रहता है। यही डर है, जो ओलम्पिक खेलों को क्रिकेट के सामने अदना साबित करता है। यह फासला इसलिए बढ़ रहा है, क्योंकि क्रिकेट प्रशासक, अधिकारी, खिलाड़ी, अभिभावक, बड़ी-छोटी कंपनियां और प्रायोजक क्रिकेट पर विश्वास करते हैं। बाकी खेलों में टिकाऊपन, भरोसा और ईमानदारी कहीं नजर नहीं आती है।

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