मीडिया कवरेज में क्रिकेट और फुटबॉल की राष्ट्रीय चैम्पियनिशप को लेकर भेदभाव साफ नजर आता है
समाचार पत्र क्रिकेट की गली कूचे और गांव देहात की प्रतियोगिताओं के लिए भरपूर स्थान देते हैं लेकिन बाकी भारतीय खेलों को मीडिया मुंह नहीं लगाता
चाहे प्रिंट हो, टीवी हो या फिर डिजिटल सारे मीडिया माध्यम सिर्फ फुटबॉल और हॉकी जैसे प्रमुख खेलों के अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में ही भाव देते हैं
इस भेदभाव की वजह यह है कि क्रिकेट के साथ उनके व्यवसायिक हित जुड़े हैं
राजेंद्र सजवान
इन दिनों भारत में दो लोकप्रिय खेलों क्रिकेट और फुटबॉल की राष्ट्रीय चैम्पियनशिप का आयोजन किया जा रहा है, जिनमें से एक है क्रिकेट की रणजी ट्रॉफी और दूसरी फुटबॉल की संतोष ट्रॉफी है। एक के नतीजे आप देश के जाने-माने समाचार पत्र-पत्रिकाओं में देख सकते हैं लेकिन संतोष ट्रॉफी के परिणाम ढूंढे से भी नहीं मिलते हैं। टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर केवल रणजी ट्रॉफी का खूब बखान किया जाता है और वहां से भी संतोष ट्रॉफी गायब है। जहां तक संतोष ट्रॉफी की बात है तो राष्ट्रीय चैम्पियनशिप का दर्जा प्राप्त होने के बावजूद भी भाग लेने वाले खिलाड़ियों और मैच के नतीजों का उल्लेख शायद ही कहीं मिले।
ऐसा क्यों है और इस प्रकार के दोहरे मापदंड क्यों अपनाए जा रहे हैं इस सवाल का जवाब न तो मीडिया के पास है और ना ही देश की फुटबॉल को संचालित करने वाली फेडरेशन से कुछ कहते बन रहा है। लेकिन देश के कुछ जाने-माने पूर्व खिलाड़ी, फुटबॉल प्रेमी और इस खेल से जुड़े अन्य लोग मानते हैं कि क्रिकेट के अलावा देश में अन्य किसी खेल के लिए प्रचार माध्यमों के पास न तो वक्त है और ना ही स्थान।
हैरानी की बात यह है कि समाचार पत्रों के पास क्रिकेट की गली कूचे और गांव देहात की प्रतियोगिताओं के लिए भरपूर स्थान है लेकिन बाकी भारतीय खेलों को मीडिया मुंह नहीं लगाता। सीधा सा मतलब है कि फुटबॉल और हॉकी जैसे प्रमुख खेलों को मीडिया सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में ही भाव देता है। इस भेदभाव की वजह यह है कि क्रिकेट के साथ उनके व्यवसायिक हित जुड़े हैं।
दिल्ली सॉकर एसोसिएशन के पूर्व सचिव और उपाध्यक्ष नरेंद्र भाटिया ने लगभग चालीस साल तक दिल्ली की फुटबॉल को सेवाएं दीं। उनके पद पर रहते मीडिया ने स्थानीय फुटबॉल को जमकर छापा। संतोष ट्रॉफी को भी बराबर सम्मान मिला लेकिन आज हालत बदलने का दोष भाटिया आयोजकों की विफलता के साथ जोड़ते हैं। उनके अनुसार, आपको मीडिया से जुड़ना होगा क्योंकि बदलते माहौल में कोई भी पत्रकार या चैनल आपके हाल समाचार पूछने नहीं आने वाला है।
वरिष्ठ खिलाड़ी और पूर्व कोषाध्यक्ष हेम चंद भी भाटिया की राय से सहमत हैं। उनके अनुसार, भाटिया सीधे मीडिया से पहुंच रखते थे और फुटबॉल की खबरें लेकर पत्रकारों के पास जाते थे लेकिन आज कोई भी कोशिश नहीं करना चाहता। क्रिकेट के दबदबे के चलते स्थानीय फुटबॉल तो दूरी की बात है संतोष ट्रॉफी जैसे राष्ट्रीय टूर्नामेंट को जगह मिलना आसान नहीं रह गया है। पूर्व फीफा रेफरी रिजवान-उल-हक, सीमा सुरक्षाबल के पूर्व कप्तान सुखपाल सिंह बिष्ट मानते हैं कि फुटबॉल को मीडिया तक पहुंचने के लिए नए सिरे से शुरुआत करनी होगी क्योंकि क्रिकेट धनाढ्यों का खेल है और पैसे के दम पर बहुत कुछ खरीदा जा सकता है। उनके अनुसार, रणजी और संतोष ट्रॉफी का कद बराबर का है तो फिर यह सौतेला व्यवहार क्यों?
कुछ अन्य पूर्व खिलाड़ियों की राय में इस दिशा में ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) को अपनी सदस्य इकाइयों के साथ मिलकर प्रयास करना होगा और मीडिया को यह समझाना होगा कि फुटबॉल दुनिया का सबसे लोकप्रिय खेल है, जिसे किसी भी कीमत पर बढ़ावा देने की जरूरत है। यदि कोई फुटबॉलर हैट्रिक जमाता है तो वह किसी क्रिकेटर की सेंचुरी से कमतर नहीं है। ज्यादातर फुटबॉल खिलाड़ियों और कोचों का मानना है कि मीडिया के दोहरे मापदंडों के कारण भारत में फुटबॉल का समुचित विकास नहीं हो पाया है।