राजेंद्र सजवान/क्लीन बोल्ड
टोक्यो ओलम्पिक में पैरा खिलाड़ियों का प्रदर्शन अभतपूर्व रहा। चार गोल्ड सहित 19 पदक जीत कर लौटे दिव्यांग खिलाड़ियों ने जैसा सोचा था शायद उनका स्वागत सत्कार वैसा नहीं हुआ। हैरानी वाली बात यह है कि नीरज चोपड़ा का एकमात्र गोल्ड ख़ासा भारी पड़ा।
सात पदक जीतने वालों का देश भर में ढोल पीटा गया लेकिन दिव्यांगों की खास पूछ ताछ नहीं हुई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सबके हिस्से की वाह वाह शायद नीरज के खाते में चली गई फिरभी पदक से चूकने वाले सामान्य खिलाड़ियों को कुछ औद्योगिक घरानों और राज्य सरकारों ने चैम्पियनों की तरह ट्रीट किया, जबकि पदक विजेता दिव्यांग टकटकी लगाए देखते रह गए। लेकिन उन्हें कोई मलाल नहीं है।
जानसन कंट्रोल्स-हिताची एयर कन्डिशनिंग इंडिया द्वारा आयोजित एक स्वागत समारोह में शामिल ओलम्पिक पदक विजेता दिव्यांग खिलाड़ियों से जब इस संवाददाता ने उनके साथ हो रहे सौतेले व्यवहार के बारे में पूछा तो गिले शिकवे और रोने धोने की बजाय उन्होंने कहा की जो मिला उसी को मुक़द्दर समझ लिया।
पुरुषों की चक्का फेंक स्पर्धा में सिल्वर जीतने वाले योगेश कथूरिया ने दो टूक कहा कि उन्हें ओलम्पिक खेलने का प्लेटफार्म और शिर्डी शाईं बाबा फाउंडेशन का सपोर्ट मिला जिसके लिए आभारी हैं। इस अवसर पर साईं बाबा के ख्याति प्राप्त अभिनेता आशिम खेत्रपाल भी उपस्थित थे।
जेवलिन में गोल्ड जीतने वाले सुमित अंतिल किसी कारणवश, मौजूद नहीं थे लेकिन ब्रांज पाने वाले सुंदर सिंह गुर्जर ने भी दिव्यंगों के साथ हो रहे भेदभाव को तूल नहीं दिया और कहा कि जो कुछ मिल रहा है, उम्मीद से ज़्यादा है।
डिस्कस देखा और शुरू हो गया:
टोक्यो पेरालांपिक खेलों में डिस्कस थ्रो में सिल्वर जीतने वाले 24 वर्षीय योगेश कथूरिया को नौ साल की उम्र में पैरालिसिस हुआ और उसे लगा की अब शायद ही किसी खेल में भाग ले पाए। बहादुरगाढ़ का यह नौजवान जब बी काम के लिए दिल्ली के किरोडीमाल कालेज में दाखिल हुआ तो यह उसके जीवन का सबसे खूबसूरत मोड़ साबित हुआ।
जब उससे डिस्कस थ्रोवर बनने के बारे में पूछा गया तो बोला, “बस कोई भी खेल खेलना चाहता था लेकिन कॉलेज में पहले ही दिन उसका सामना डिस्कस से हो गया। कुछ साथी फेंक रहे थे तो सोचा मैं भी कोशिश कर देखता हूँ। पहले ही प्रयास में कामयाब रहा और फिर डिस्कस का हो कर रह गया”। योगेश का अगला लक्ष्य पेरिस ओलम्पिक है, जहाँ वह गोल्ड जीतने के इरादे से उतरेगा।
सुशील और विजेंद्र बने मार्गदर्शक:
रियो ओलम्पिक में एक बड़ी चूक के चलते सुंदर सिंह गुर्जर ओलम्पिक में भाग नहीं ले पाए थे। प्रतियोगिता स्थल पर 52 सेकेंड देर से पहुँचने की सज़ा यह मिली कि उसे मुक़ाबले में शामिल नहीं किया गया। जोरदार वापसी की आग लिए गुर्जर टोक्यो ओलम्पिक में भाग लेने गया और ब्रांज जीतने में सफल रहा।
विश्व और एशियाई स्तर पर तमाम बड़े पदक जीतने वाला गुर्जर सुशील और विजेंद्र जैसे ओलम्पिक पदक विजेताओं को अपना मार्गदर्शक मानता है। उनके ओलम्पिक पदकों को देख कर सुंदर ने भी कुछ कर गुजरने की ठानी थी। उसने देखा कि कैसे ओलम्पिक पदक जीतने वालों को पूरा देश सिर माथे बैठता है।
लेकिन एक समय ऐसा भी था जब दसवीं में दो बार फेल हो जाने के कारण घर वाले उसे सेना में भर्ती होने पर दबाव डाल रहे थे। पेरिस ओलम्पिक में वह पदक का रंग बदलना चाहता है।
जानसन और हिताची द्वारा प्रायोजित एक अन्य एथलीट सुमित मलिक विश्व स्तर पर दूसरे नंबर के जेवलिन थ्रोवर आँके जा रहे थे लेकिन उसने धमाकेदार प्रदर्शन से वर्ल्ड रिकार्ड के साथ गोल्ड जीता और वाह वाह लूटी।
हालाँकि तमाम दिव्यांग एथलीटों ने उन्हें मिल रहे प्रोत्साहन और पुरस्कारों पर संतोष व्यक्त किया लेकिन सुमित ने देश वासियों से अपील की और कहा की अब समय आ गया है कि पैरा खिलाड़ियों पर भी ध्यान दिया जाए। वे किसी से कम नहीं हैं। भारतीय ब्रांड को चाहिए कि उन्हें बढ़ावा देने के लिए आगे आएँ ताकि उनके जैसे चैम्पियन खेलों में एक नये युग की शुरुआत कर सकें और देश का नाम रोशन करें।