- डीएसए के ज्यादातर क्लब डबल लेग प्रीमियर लीग खेलने योग्य नहीं हैं, क्योंकि पहले लेग में ही अधिकतर टीमों का दमखम जवाब दे गया
- यह सही है कि लीग को सटोरियों और फिक्सरों की घुसपैठ ने शक के दायरे में खड़ा कर दिया है
- कुछ शुरुआती मैचों को छोड़ दें तो अधिकांश मैच आरोप-प्रत्यारोपों, आपसी कलह और रेफरियों को कोसने के साथ समाप्त हुए
- गढ़वाल हीरोज भले ही चैम्पियन बनी लेकिन उसके खेल का स्तर विजेताओं जैसा नहीं था, वो शायद अनुशासन और कड़ी मेहनत थी जो गढ़वाल की ताकत बनी
- पिछले विजेता वाटिका एफसी को शायद अत्यधिक आत्मविश्वास ले डूबा, क्योंकि वो कभी भी एकजुट नजर नहीं आई
राजेंद्र सजवान
डीएसए दिल्ली प्रीमियर फुटबॉल लीग के आयोजन को अभी दो साल ही हुए हैं लेकिन दूसरे संस्करण के खत्म होते-होते फुटबॉल का दम निकलने जैसा आभास हुआ। पहली प्रीमियर लीग की कामयाबी से दिल्ली के क्लब मालिकों और फुटबॉल प्रेमियों को बड़ी उम्मीद बंधी थी। उन्हें लगा जैसे लीग आयोजन से दिल्ली और देश की फुटबॉल का कायाकल्प हो जाएगा लेकिन दूसरे संस्करण में जैसा खेल देखने को मिला, उसे लेकर फुटबॉल प्रेमियों और खेल जानकारों को बेहद निराशा हुई है।
यह सही है कि लीग को सटोरियों और फिक्सरों की घुसपैठ ने शक के दायरे में खड़ा कर दिया है। नतीजन कुछ शुरुआती मैचों को छोड़ दें तो अधिकांश मैच आरोप-प्रत्यारोपों, आपसी कलह और रेफरियों को कोसने के साथ समाप्त हुए। शायद ही कोई ऐसा मैच खेला गया हो जब खिलाड़ी कोच और टीम प्रबंधन ने हार के बाद शराफत के साथ मैदान छोड़ा हो। रेफरी और लाइनसमैन को गालियां देने वाले खिलाड़ियों ने यदि अपनी गिरेबान में झांक कर देखा होता तो उन्हें पता चल जाता कि क्यों इस बार की लीग पूरी तरह फ्लॉप कही जा रही है।
भले ही गढ़वाल हीरोज चैम्पियन बनी लेकिन उसके खेल का स्तर चैम्पियन कहलाने जैसा नहीं था। लेकिन शायद अनुशासन और कड़ी मेहनत गढ़वाल की ताकत बनी। दूसरी तरफ, पिछले विजेता वाटिका एफसी को शायद अत्यधिक आत्मविश्वास ले डूबा। वाटिका कभी भी एकजुट नजर नहीं आई। इसके विपरीत रॉयल रेंजर्स ने अपने खेल को बिगड़ने नहीं दिया। लेकिन बड़े नाम और दाम वाले क्लबों का सबसे कमजोर पहलू यह रहा कि ज्यादातर खेल मिडफील्ड में खेला गया। यह प्रदर्शन कुछ ऐसा ही था जैसा कि भारतीय राष्ट्रीय टीम खेलती आ रही है और लगातार नीचे धसक रही है। विश्वास न हो तो दिल्ली के फुटबॉल एक्सपर्ट से पूछ कर देख लें। डॉ. अम्बेडकर स्टेडियम और ईस्ट विनोद नगर स्पोर्ट्स कांप्लेक्स के मैदान सारी कहानी बयां करते है।
दोनों ही मैदान बीच से लगभग गंजे हैं लेकिन लेफ्ट और राइट आउट के दोनों तरफ के छोर हरे भरे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि दिल्ली की टीमों ने विंगर से खेलना छोड़ दिया है। बिना ड्रिबलिंग किए खिलाड़ियों का जैसे खाना हजम नहीं होता। इतना ही नहीं लंबी दूरी से यकायक मारे जाने वाले शॉट भी देखने को नहीं मिलते।
भले ही निचले पायदान की टीमें तरुण संघा, रेंजर्स और अहबाब कसौटी पर खरी नहीं उतरीं लेकिन इन टीमों का खेल कुछ मैचों में शानदार रहा। कई बड़ी टीमों को हैरान-परेशान करने में उन्हें कामयाबी मिली लेकिन उन पर कुछ गंभीर आरोप भी लगे, जो कि चिंता का विषय है। बेहतर होगा क्लब भविष्य में बेहतर छवि के साथ मैदान में उतरेंगे। अंत में यह कहना गलत नहीं होगा डीएसए के ज्यादातर क्लब डबल लेग प्रीमियर लीग खेलने योग्य नहीं हैं। पहले लेग में ही अधिकांश का दमखम जवाब दे जाता है।