क्लीन बोल्ड/ राजेंद्र सजवान
वाकई वक्त बड़ा बेरहम है। राजा कब रंक बन जाए और कब किसे आसमान से धरा पर पटक दे कहा नहीं जा सकता। लेकिन जब हम अपने राष्ट्र नायकों को भुलाते हैं उनकी उपलब्धियों को नजर अंदाज करने लगते हैं तो समझ लीजिए अपने बुरे दिनों को बुलावा देते हैं। देश और दुनिया के इतिहास में ऐसे अनेक महावीर और राष्ट्र भक्त हुए हैं जिन्हें देश और समाज ने भुलाया और उसकी कीमत अदा की।
यह भूमिका जीते जागते अजर अमर धनुर्धर लिम्बा राम को लेकर बाँधी गई है। इसलिए क्योंकि जो लिम्बा कुछ साल पहले तक तीरंदाजी का माहिर और राष्ट्रीय हीरो था वह आज जिंदगी मौत से जूझ रहा है। उसे इस बात का अफसोस है कि अब मीडिया भी उसकी खैर ख्वाह नहीं पूछता।
जिसके हर निशाने पर तालियां बजती थीं, जिसकी छोटी बड़ी कामयाबी पर भारतीय तीरंदाजी संघ, भारतीय ओलम्पिक समिति, देश का खेल मंत्रालय और खुद भारत वर्ष गौरवान्वित महसूस करते थे उसकी खैर पूछने वाला आज कोई भी नहीं है।
जो भारत महान को खेल महाशक्ति बनाने का सपना देख रहे हैं, जिन्हें अगले ओलम्पिक में 20 गोल्ड मैडल दिखाई दे रहे हैं उन्हें यह भी पता नहीं कि उनका एक महान तीरंदाज जीवन के लिए लड़ रहा है। उसकी यह लड़ाई आज कल की नहीं है। पिछले कई सालों से वह दिमाग कि गंभीर बीमारी से परेशान है।
फिलहाल लिम्बा गाज़ियाबाद के यशोदा हस्पताल में भर्ती है। न्यूरोडिजेनेरेटिव और सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी से जूझ रहे लिम्बा को नेहरू स्टेडियम स्थित निवास में ब्रेनस्ट्रोक के चलते हस्पताल में भर्ती कराया गया है, जहाँ उसकी हालत स्थिर बनी हुई है। कुछ दिन पहले वह स्टेडियम में व्हील चेयर पर था।
इस दौरान उसने बताया कि पिछले तीन सालों से भारतीय खेल प्राधिकरण से उसे हर प्रकार का सहयोग मिल रहा है। रहने खाने और इलाज का खर्च भी साई उठा रहा है। स्पोर्ट्स काउन्सिल से भी उसे सहयोग मिलता है। लेकिन अर्जुन और पद्म श्री पाने वाले इस चैम्पियन को द्रोणाचार्य अवार्ड नहीं पाने का दुःख है।
30 जनवरी 1972 को राजस्थान की अहारी जनजाति में जन्में लिम्बा राम का जीवन शुरू से ही कठिनाई भरा रहा। तीतर, बटेर , चिड़िया, गौरैया , खरगोश और अन्य जानवरों का शिकार करते हुए वह भारतीय तीरंदाजी के शिखर पर चढ़ा|। एशिया और ओलम्पिक में विश्व रिकार्ड बनाए लेकिन ओलम्पिक पदक नहीं जीत पाए क्योंकि तब तक भारत में ऐसे पिछड़े खेलों के लिए पैसा, साधन, अच्छे कोच नहीं थे।
लेकिन लिम्बा ने देश के लिए जो कुछ हासिल किया लाखों करोड़ों कि सुविधाएं पाने वाले आज के तीरंदाज भी उसकी बराबरी नहीं कर पाए हैं। बदले में उसे इस देश की सरकारों और तीरंदाजी एसोसिएशन ने उसे वह दिया जो द्रोणाचार्य ने एकलव्य को दिया था।
बेचारा आज़ाद भारत का एकलव्य आज गुमनामी का जीवन जी रहा है। कोई खिलाड़ी,अधिकारी उसकी खोज खबर तक नहीं लेता। वह कब बीमार पड़ जाए कोई पता नहीं और शायद इसी तरह दुनिया को भी अलविदा कह सकता है। उसे इस बात का भी अफ़सोस है कि देश का मीडिया भी उसकी खबर नहीं लेता।