राजेंद्र सजवान/क्लीन बोल्ड
कुछ साल पहले तक दक्षिण एशियाई देश भारत के सामने सर नहीं उठा पाते थे। पकिस्तान, श्री लंका, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, मालदीव और अन्य भारत को बड़ा भाई मानते थे। लेकिन देश की नाकारा सरकारों ने इनमें से ज्यादातर को अपना दुश्मन बना दिया है। इन देशों को हमारी फुटबाल टीमें भी बुरी तरह रौंद डालती थीं।
लेकिन अब हालात बदल चुके हैं । 1970 तक इन में से ज्यादातर देशों को पीटना हमारी फुटबाल के लिए बाएं पांव का खेल होता था लेकिन साल दर साल हमारे पडोसी देश जितना आगे बढे भारतीय फुटबाल ने कायरों की तरह पांव पीछे खींच लिए।
एस ए एफ एफ फुटबाल टूर्नामेंट में बांग्लादेश के बाद श्रीलंका ने भी भारतीय राष्ट्रीय टीम को बराबरी पर रोक कर यह साबित कर दिया है की भारतीय फुटबाल में अब दम नहीं रहा और दुनिया के सबसे फिसड्डी देश भी उसकी हेंकड़ी निकाल सकते हैं।
यह हाल तब है जबकि भारतीय फुटबाल खिलाडी सालों साल से देशवासियों के खून पसीने की कमाई को बर्बाद कर रहे हैं। हैरानी वाली बात यह है कि एक तरफ तो हमारी सरकारें अंतर्राष्ट्रीय मंच पर देश की गरीबी का रोना रो रही हैं तो दूसरी तरफ उस खेल पर करोड़ों बहाए जा रहे हैं जिसने पिछले पचास सालों में भारत महान को सिर्फ अपयश और लानत दी है।
उस समय जब भारत ने 1951 और 1962 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीते थे तब हमारे पड़ोसियों में भारतीय फुटबाल से आँख मिलाने की हिम्मत तक नहीं थी। तब अपने कोचों की मौजूदगी में नतीजे पूरी तरह एकतरफा होते थे।
लेकिन अब हालत यह है की कोई भी ऐरा गैरा न सिर्फ आँख दिखा रहा है अपितु आँखे निकाल कर गोटियां खेलने जैसी धमकी भी दे डालता है। यह भी सुनने में आया है की कुछ प्रतिद्वंद्वी तो सरे आम कहते हैं,”दादा अब वो दिन चले गए, जब आपकी चलती थी।अब ना चोलबे”। इतना ही नहीं कुछ खिलाडियों से पता चला है की पडोसी खिलाडी गन्दी और भद्दी गलियां तक देने लगे हैं।
इसमें दो राय नहीं की विदेशी कोच सबसे बड़े फसाद की जड़ हैं। पहले पहल वे भारतीय फुटबाल को सोया शेर बताते हैं। फिर टीम के खलीफा प्रवृति के खिलाड़ियों से सेटिंग बैठा कर साईं और फेडरेशन के अज्ञानियों को बरगलाते हैं और अपना अनुबंध बढ़ाते हैं। अंततः इस तोहमत के साथ स्वदेश लौटते हैं की भारतीय फुटबाल का कोई भला नहीं कर सकता।
खैर, ये तो वे सही कहते हैं की भारतीय फुटबाल का भला नहीं हो सकता । सवाल यह पैदा होता है की सरकार क्यों बेवजह देश वासियों के खून पसीने की कमाई लुटा रही है? क्यों कोई नेता संसद में यह सवाल नहीं पूछता की फेडरेशन का अध्यक्ष दागी करार दिए जाने के बावजूद पद पर क्यों जमा बैठा है ? क्यों खेल मंत्रालय से नहीं पूछा जाता की नीले पड़ चुके टाइगर्स (ब्लू टाइगर्स ) और उनके कर्णधारों पर कार्रवाही नहीं की जाती।
यह सही है की खेल में हार जीत होती रहती है लेकिन भारतीय फुटबाल को शायद यह भी पता नहीं की पिछली बार कब और किससे जीते थे। जो देश कभी एशियाई फुटबाल का बादशाह था आज दुनिया के सबसे बड़े और लोकप्रिय खेल का जोकर बन कर रह गया है। कहाँ है वर्ल्ड कप खेलने का दवा करने वाले ? क्यों न भारतीय टीम की अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी पर कुछ साल का प्रतिबंध लगा दिया जाए? अधिकांश फुटबाल प्रेमियों का ऐसा मानना है?